बुधवार, 24 जून 2009

जब तुम थीं ......

जब तुम थीं तब लगता था सारा संसार खुशियों ,उमंगों से भरा था कहीं कोई कमी न थी हर तरफ प्यार ही प्यार ,सब हमारे थे कोई पराया न था लगता था सब जाने -पहचाने हैं ,अपने आप को बडा होशियार ,समझदार समझते थे लेकिन आपके जाने के बाद जाना कि hम कितने गलत थे ,कितने नादाँ थे .....जब तुम थीं तब नीद इतनी आती थी कि आपके बार -बार जगाने पर भी नही जगते थे जब आप डाटना शुरू करतीं तो हम सब चादरें तान कर और सुख की नीद सो जाते आपका डाटना इतना सुकून देता कि उसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है अभिव्यक्त नही किया जा सकता सबका समय पर कार्य हो यह आपकी जिम्मेदारी थी ,चाहे कोई उठे या न उठे अब हमें नीद नहीं आती ,आती भी है तो एसी कि जरा सी आहट से उचट जाती है मिन्नतें करते हैं कि नीद आजाये ,थोड़ा सुकून मिल जाए ,लेकिन एसा कुछ नहीं होता क्यों होता है एसा ?
जब तुम थीं तो तुम्हारे कपडों से ,बदन से ,वह खुशबु आती थी कि खाना खाने की तीव्र इच्छा होती थी आप मैं समाई खुशबु उत्प्रेरक का कार्य करती थी हर चीज कितनी स्वादिष्ट ,कितनी अच्छी कि आज भी वह स्वाद याद करते ही मुंह मैं पानी आजाता है लेकिन अब वे स्वादिष्ट व्यंजन कहीं नही मिलते ,न किसी रेस्टोरेंट मैं ,न किसी होटल मैं ,न किसी ढाबे पर कैसे बनाती थीं आप हमारा भोजन ?मुझे पता है उस भोजन मैं इतना प्यार ,इतना स्नेह ,इतना दुलार भरा होता था कि उसे अन्य किसी मसाले की आवश्यकता ही नही होती थी आज पता नही भोजन सुस्वाद और अच्छा क्यूँ नही बनता ?
तुम थी तो कभी अपने को असुरक्षित समझा ही नही ,आज आलम ये है कि अप आप को कहीं सुरक्षित महसूस नही करते जिम्मेदारियों का कभी एहसास ही नही हुआ ,जो कहा वह कर दिया उस पर भी दस बार कह लिया ,उसके बदले में कुछ न कुछ पाने की कामना की आज जिम्मेदारियों का पहाड़ सर पर उठाए फिरती हूँ जिसने जीना दूभर कर दिया है
तुम थी तो लडाई कितनी होती थी ?आप संभालते -संभालते परेशान हो जाती थी हम भाई -बहनों की लडाई से अब हम लड़ते नही ,बात भी ज्यादा नही करते एक -दुसरे को देख कर आँखे चुराते हैं ,बातों में उलाहना नही ,शिकायत नही ,सब कुछ शांत है यह शान्ति हमें अच्छी नही लगती तुम थी तो मान -मनुहार थी ,रूठना -मनाना था अब न कोई रूठता है न मनाता है ,उसे उसके हाल पर ही छोड़ दिया जाता है क्या हो गया है सबको ?कोई बताता क्यों नही ....?
जब आप थी तो हर बात आपको बताती थी एक -एक बात दौड़ -दौड़ कर बताने आती थी ,फ़िर बातें इकठ्ठी करके बताने लगी क्योंकि जल्दी मिलने का मौका ही नही मिलता था अब भी बहुत सी बातें मन में आती हैं ,इकठ्ठी भी करती हूँ लेकिन .......किसको बताऊं ,कौन सुनेगा .....कौन ध्यान देगा ,कौन समझाएगा ......शायद ये बातें अब यूँ ही रह जाएँगी मैं यूँ ही कहने को तडपती रह जाउंगी ............
तुम थी तो जीवन हरा -भरा था खुशियों का सागर था ,हर दिन नया दिन ,हर रात नयी रात थी अब इस सागर में लहरें नही ,मोटी नही ,उल्लास नही ,सब कुछ विलीन हो गया है
क्या ये सब कभी वापस मिलेगा ..............नही मिल सकता ........क्योंकि जननी तो जीवन में एक बार ही मिलती है उसे पाने के लिए पुनर्जन्म लेना होगा
समाप्त

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