बुधवार, 15 जुलाई 2009
लोक लाहु परलोक निबाहू
सोमवार, 6 जुलाई 2009
सोमवार, 29 जून 2009
नियति
सृष्टि के प्रारम्भ में मेरे अस्तित्व के बिना सृष्टि अधूरी थी हर तरफ नीरसता थी ,आलस्य था कोई आकर्षण न था ईश्वर ने मुझे बना कर सृष्टि के क्रम को आगे बढाया आदिकाल में श्रद्धा के रूप में मैंने त्याग ,बलिदान ,सहिष्णुता ,सहनशीलता ,प्रेम दया और ममता के भावों से सभी का परिचय कराया लेकिन आदि पुरूष मनु ने मुझे उस काल में भी अपने स्वार्थ की पूर्ति कर उपेक्षित किया ,मेरा तिरस्कार किया लेकिन मेरे अस्तित्व को मिटा न सका थक हार कर ,निराश हो कर वह मेरी ही शरण में आया मैंने उसे माफ़ कर खुले दिल से अपनाया ,मेरी इस सहृदयता को युग ने मुर्खता समझा ,उसका महत्तव न समझा अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए हमारी भवनों से खेलते रहे और धोखा दे कर हृदय हीन बनाने की कोशिश करते रहे लेकिन मैंने अपनी ममता ,स्नेह और मानवीय भावनाओं का स्रोत न सूखने दिया
सतयुग में सत्य के कारन अंहकार और स्वार्थ को स्थान न मिला इसलिए उस युग में सत्य के साथ मिलकर सर्व भुत हो गयी जैसे -जैसे काल चक्र आगे बढ़ता गया वैसे -वैसे मनुष्य अधिक स्वार्थी ,लालची .अहंकारी और शक्ति शाली होता गया जब शक्ति और सत्ता किसी के पास होती है तो वह कब अत्याचारी हो जाता है पता ही नही चलता यह शायद वह स्वं भी नही जान पता लेकिन अपनी शक्ति का प्रयोग करना वह कभी नही भूलता
त्रेतायुग में मुझे निरपराधी होने पर भी कभी सीता के रूप में अग्नि -परीक्षा देनी पडी ,कभी सुलोचना के रूप में सती होना पडा हार युग में हार परिक्षा में सफल होती रही क्योंकि इसका आधार त्याग और बलिदान रहा स्वार्थ नही रहा इसलिए विपरीत स्थिति में भी विजयश्री ने अपना बहुमूल्य हार मुझे ही पहनाया।
काल चक्र की गति के साथ साथ मेरी गति भी बदलती गयी द्वापर युग जिसे क्रिशनयुग कहना ही उपयुक्त होगा में ,यग्यसेनी छली गयी ,अपमानित की गयी यहाँ तक स्त्री जाती की मर्यादा को भी छन्न भिन्न किया गया यशस्वी पंच - पतियों के सामने मैं , द्रोपदी लाचार और अपमानित हुई इसका अनुम्मान यह काल भी नही लगा सकता इतिहास ने तो कुछ साक्ष्य ही दिखाए हैं उसने उस वेदना को ,उस आत्म ग्लानी को नही देखा न भुगता उसे मैंने भुगता है उसे मैंने तिल -तिल जिया है और जीने में न जाने कितनी बार मरी हूँ हर मौत और भी भयानक और भी क्रूर होती गयी इस अपमान ने ,इस टीसन ने ,इस वेदना ने मुझे इतना जलाया की यह जलन हिमालय की श्रंखलाओं के बीच हिम आक्षादित होकर भी शांत नही हुई क्या तुम्हे बर्फ से उठता हुआ धुंआ दिखाई नही देता ?देता है ....न ये मेरी आहें हैं ,ये मेरी पीड़ा है जो आज भी धधक रही है कुछ गलतियाँ क्षम्य होती हैं तो कुछ चाह कर भी इस परिधि में नही आती
इतना सब होने के बाद भी मैं हारी नही ,टूटी नही ,बिखरी नही ,मैं अस्तित्वहीन न हुई ,क्योंकि मेरा एक रूप था ,एक आकार था ,एक व्यक्तित्व था इसलिए अस्तित्ववान बनी रही
काल रथ का पहिया अब उस जगह आकर स्थिर हो गया है ,जहाँ कर्ण की मौत सुनिश्चित है एक सत्य की मौत ,एक विश्वाश की मौत यह काल चक्र कलियुग में आकर थम गया है अंहकार ,स्वार्थ ,लोभ ,काम ने इस काल को अपने आगोश में लेलिया है परिणाम .......स्पष्ट है कलीयुगी पुरूष ने अपनी ही सहचरी को ,अपनी ही शक्ति को ,अपनी ही प्रेरणा को शक्तिहीन करने का बीडा उठा लिया है अंहकार और शक्ति के मद ने उसे कामांध ही नही एसा अँधा बना दिया है जो अपने भले -बुरे को भी नही पहचान सकता
क्रूरता अपनी चरम सीमा पर है दया ममता ,कर्तव्य ,सच्चाई और ईमानदारी ने किनारा कर लिया है काली स्थान में अब सिर्फ़ शैतान का घर है इसने पढे -लिखे ,समझदार व्यक्ति को विज्ञान के उन अनुसंधानों की ओर धकेल दिया है जहाँ वह ईश्वर की सृष्टि में भी दखलंदाजी करने लगा है विज्ञानं ने गर्भस्थ शिशु के बारे में सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करा दी है जिससे पुरूष ने अपनी इच्छा को स्त्री पर लाड दिया है कभी वह स्वयं बेटा चाहता है तो कभी इस चाहत में माता और बहन को भी शामिल कर लेता है और भ्रूण हत्या जैसे अपराध में प्रवृत्त हो जाता है
इस कृत्य ने आज संसार को उस मोड़ पर लाकर खडा कर दिया है जहाँ से सृष्टि के रास्ते भी बंद हो जाते है न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी सदियों से कभी गला दबा कर ,कभी जहर देकर जो कन्याओं की ह्त्या की जाती थी आज वे निर्भीक तौर पर इसे की जाती हैं की न उन्हें कफ़न नसीव होता है न अंत्येष्टि आज उनकी अंत्येष्टि छोटे -छोटे टुकडों में काट कर नाली में बहा कर की जाती है कोई रोता नही ,बिलखता नही ,तडपता नही ,सब कुछ योजना बद्ध तरीके से होता है
पहले बालिका को जन्म लेने के बाद मारा जाता था आज उससे कोख में पलने का सुख भी छीन लिया उसकी जन्म दात्री जो सब पर ममता लुटाती है इसे मानव रुपी दानवों के दबाव से नही बचा पाती
पहले तो मैं सामना कर लेती थी ,जूझ लेती थी ,हरा देती थी ,झुकने को मजबूर कर देती थी क्योंकि उस समय मेरा रूप था आकार था बिना रूप और आकार के मैं कैसे लडूंगी ?अब तो मानव को मुझे इस जमीन पर लाने मेंभी हिचकिचाहट होने लगी है
याद रखिए बिना बाती के दीपक निष्प्राण एवं निरर्थक होता है उसे अस्तित्व में लाने के लिए बाती के अस्तित्व को स्वीकारना होगा अन्यथा वह दृष्टिहीन आखों की तरह व्यर्थ होगा मनुष्य मेरी नियति को बदलने की लाख कोशिश करले ,वह मुझे मिटा नही पायेगा उसे फ़िर मेरे पास आना ही होगा मैं भी बहुत जिद्दी हूँ ,हटीहूँ जिस तरह हर युग में अपने आप को बनाए रखने में समर्थ रही हूँ उसे कलियुग में भी मेरे अस्तित्व को स्वीकारना पडेगा मैं हार नही मानूगी हर बार नई कोख की तलाश में रहूंगी तुम मुझे मिटाते रहो मैं फ़िर आउंगी ..........मैं फ़िर जन्म लूंगी ...........मैं फ़िर जन्म लूंगी।
शनिवार, 27 जून 2009
मिलही न जगत सहोदर भ्राता
मां बताती थी कि जब मैं करीव एक साल की थी तब मां को किसी काम से थोड़ी देर के लिए बाहर जाना पडा वे मुझे भाई के साथ ,जो मुझसे मात्र चार साल बड़ा था ,छोड़ कर चली गयी और दरवाजा बंद कर गयी जाते -जाते मुझे कुछ खाने को दे गयी जल्दी में सीडियों का दरवाजा बंद करना भूल गयी उन्ही सीडियों से एक मोटा बन्दर नीचे आ गया वह भी मेरे साथ खाने लगा पास खेलते भाई ने जब देखा तो मुझे नन्ही बाँहों में भर लिया और जोर -जोर से रोने लगा मां ने आवाज सूनी तो दौड़ती हुई आई उन्हें देख कर बन्दर खाने का सामान लेकर भाग गया लेकिन मेरा अग्रज अभी भी मुझे छाती से चिपकाए दहाडें मार रहा था
मां ने चुप कराते हुए कहा -
"बन्दर भाग गया ,अब क्यों रो रहा है ?
"लली को बन्दर खा जाता तो ?
और ......तुझे खा जाता तो ......?
वह नन्हा बालक विस्फारित नेत्रों से देखता ही रह गया ,बहन के स्नेह ने अपने बारे में कुछ सोचने ही कहाँ दिया था यह तो बचपन की भाई है ,वह आज भी एसा ही है
याद आती है मुझे एक घटना ,जब मैं लगभग नौ साल की होउंगी पन्द्रह अगस्त के कार्य -क्रम में दौड़ में मैंने भी भाग लिया था मैं उस दौड़ में द्वितीय स्थान पर रही मुझे एक सुंदर सा डिब्बा मिलाथा उस समय मैंने अपने भाई की ग्रीवा में जो गर्व देखा था उसे शब्दों में बांधना मेरे लिए सम्भव नही
मैं किसी भी कार्य -क्रम में भाग लेती चाहे वह स्कूल का हो बाहर का भइया के निर्देशन में ही होता एक बार मुझे जन्म-अष्टमी पर नृत्य प्रस्तुत करना था मैं भइया से पहले चली गयी नृत्य के बाद मैंने घर वालों को ढूंडा ,वे मुझे दिखे नही ,जबकि वे मुझे ही ढूंड रहे थे मैंने वगैर इंतजार किए घर का रास्ता पकडा भयंकर वारिश हो रही थी ,पता नही कैसे मैं अकेली घर पहुँच गयी दरवाजा बंद था ,मैं वहीं बैठ कर रोने लगी थोड़ी देर में देखा कि मेरा भाई छाता लिए मुझे देखने आ रहा था हर मुसीबत में जब भी सहारा चाहा वह मुझे पास ही मिला
जब हम लोग पढ़ते थे ,उस समय फ़िल्म देखने या बाहर घुमने की अनुमति मिलना उतना ही मुश्किल था जितना इमरजेंसी में छुट्टी मिलना लेकिन मेरा चतुर भाई किसी न किसी तरह यह कार्य कर ही लेता और सहभागिनी बनती मैं मां को अपनी ढाल बना हम यह काम कर ही डालते
पिता के स्वर्गारोहण के बाद हमने अपने छोटे भाई का विवाह किया काफी मेहमान आ गये थे ,सभी पीछे के आँगन में बांते कर रहे थे सर्दियों के दिन थे ,मैं करीब ग्यारह बजे पहुँची बच्चे कार से उतरते ही नानी के पास दौड़ गए मैं भी अन्दर चली ...द्रौईंग रूम के पास वाले कमरे में पिताजी का चित्र देख कर मैं उधर मुड़ gई उसके सामने खडी हुई कि भरा दिल उमड़ पड़ा दृष्टि धुंधली हो गयी ,शुभ अवसर पर आंसूं न बहाने का संकल्प बिखर गया मैं आंसुओं को रोकने की असफल चेष्टा कर रही थी कि मैंने अपने सर पर स्पर्श महसूस किया मुड़ कर देखा ,मौन खड़े भइया मेरा सर सहला रहे थे आंखों मेंआंसू थे लेकिन मुझे सर हिला कर रोने से रोक रहे थे आंसू पोंछ में पिता तुल्य भाई के पीछे चल पडी यत्न से छुपाए आंसू आंखों पर अपनी छाप छोड़ गये सबने देखते ही पूछा -
"रो रही थी क्या ?'
भइया ने कहा -
"ससुराल में मजे करके आयी है ,यहाँ काम करना पडेगा ..........रोयेगी नही क्या ..........?
सारे हंस पड़े ,में और भैया भी इसमें शामिल हो गये
जीवन के उतार -चढाव को मेरे भाई ने बहुत भोग है बीस वर्ष तक एक ही टी एस्टेट में शानदार नौकरी की ,लेकिन समय और भावः को कोई नही जान पाया है किसी की कमियों का खामियाजा कब ,कौन भुगतेगा कोई नही जानता नौकरी छोड़ दी ..........और दुसरी के लिए प्रयत्न जारी रहे ..........कभी मिली ....कभी छोडी ......फ़िर मिली ....फ़िर छोडी का क्रम चलता रहा लेकिन उन्हें कभी हताश और निराश नही देखा जिन लोगों ने धोखा दिया उन्ही की सहायता की
अदम्य साहस ,धैर्य ,शक्ति ,हिम्मत और सूझ -बुझ का उन्होंने परिचय दिया बच्चों की पढाई हो या परिवार की कोई जिम्मेदारी हो हमेशा ही उन्होंने पूर्ण सहयोग दिया
हमेशा पढ़ती और सुनती आई हूँ कि जो व्यक्ति सुख -दुःख को ,मान अपमान को समान भावः से ग्रहण करता है ,वह संत पुरूष होता है
मुझे इसे ही भाई की भगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त है
शुक्रवार, 26 जून 2009
बदला
व्यक्ति को यह भ्रम होता है कि वह बदला लेकर ही चैन की नीद सोएगा पर हकीकत यह है कि वह बदला लेकर और भी बेचैन हो जाता है कभी कानून से बचने के लिए परेशान तो कभी आत्म -अपराध से परेशान चैन कहीं नही यदि कानून की पकड़ मैंआ गए और दंड पा गए तो ठीक अन्यथा आत्म ग्लानी मैं तिल -तिल कर जलना पड़ता है और जीवन घोर नर्क बन जाता है
बदला लेने वाला व्यक्ति जितना शक्ति शाली और सामर्थ्य वाला होता है बदला भी उतना ही विनाशकारी होता है प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल होती है कि यह जन्म -जन्मान्तर तक भी पीछा नही छोड़ती लेकिन एक बात निश्चित है ,प्रामादित है कि बदला और विनाश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं महाभारत का युद्घ द्रौपदी के अपमान का बदला था ,युवराज दुर्योधन के अपमान का बदला था समस्त कौरवों के साथ -साथ ग्यारह अक्शौहिदी सेना भी इसके विनाश मैं समाहित हो गयी
अम्बा ने अपना बदला भीष्म से पुनर्जन्म लेकर लिया शिखंडी के रूप मैं उसने किसका भला किया ?न अपना ,न परिवार का ?भीष्म के विनाश का आदि बना शिखंडी और स्वयम भी इस युद्घ की विभीषिका मैं समां गया
आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक आए दिन लोग इसकी आग मैं जल रहे हैं कही बदला लेने के लिए मित्र ,मित्र को मार रहा है ,भाई -भाई को मार रहा है ,पति पत्नी को मौत की नीद सुला रहा है तो पत्नी भी पीछे नही है साम ,दाम दंड ,भेद कोई इसी नीति नही है जिसका प्रयोग इसके लिए न किया जा रहा हो छल से ,बल से ,तकनीकी से ,धन से हर तरीके से मनुष्य बदला लेने मैं लगा है ,फ़िर चाहे वह स्वयं ही उसमें भस्म क्यों न हो जाए
सिर्फ़ शक्ति ही बदले की भावना को प्रबल नही करती बल्कि कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी बदले लेने के विभिन्न तरीके दुंद लेते हैं अभी हाल मैं घटित घटना ने तो हिला कर रख दिया हिजडों के एक समूह ने बच्चे के जन्म पर बच्चे के पिता से हैसियत से ज्यादा मांग की इस पर दोनों मैं कहा -सूनी हो गयी हिजडों ने उस अपमान का बदला उस मासूम बच्चे के पिता को नामर्द बना कर लिया और उसे भी नाचने -गाने के लिए मजबूर कर दिया मृत्यु दंड भी इसे अपराधियों के लिए कम है
बदला लेना और बदला चुकाना ,दोनों विपरीत शब्द हैं जहां एक का भाव ईर्ष्या ,द्वेष ,जलन ,घृणा से पूर्ण होता है ,वही दूसरा कृतज्ञता व् एहसान के भाव को दर्शाता है बदला लेना व्यक्ति के अपराध भावःऔर विचारों की संकीर्णता को दिखलाता है ,वही बदला चुकाना व्यक्ति के सहृदय ,विशाल दृष्टि कोण और सज्जनता का प्रतीक है बदला लेने से शत्रुता बदती है तो बदला चुकाने से प्यार कहीं -कहीं बदला चुकाने को बदला लेने के अर्थ मैं भी प्रयोग किया जाता है वहां बदला लेने की भावना उस सीमा से गुजर जाती है जहां इंसानियत बाकी होती है तभी बदला लेने को बदला चुकाना मान लिया जाता है
कैसे बचा जाए इस विनाशकारी प्रश्न से ?उत्तर एक और ............सिर्फ़ एक है -क्षमा .........
क्षमा वह भावः है जो बदले की उफनती भावना को शीतलता प्रदान करता है सहृदयता और मानवता की भावना फैलाता है मन के अन्दर व्याप्त जहर की तासीर को कम करता है हिंसा का प्रत्युत्तर अहिंसा ही है ,यदि हिंसा ही रहा तो यह आग बढ़ती ही जाएगी यदि कहीं सुकून मिल सकता है तो सिर्फ़ क्षमा से ,सहृदयता से प्यार से ,अपनेपन से
क्षमा करने से व्यक्ति का क्रोध कम होता है ,मन को शान्ति मिलती है ,मानवता की भावना का प्रसार होता है बदला वह है जो बदल दे चाहे वह भावना हो या कार्य
क्षमा करो ,सृजन करो ,कल्याण करो ,भला करो तभी यह बदले की भावना मिट सकेगी
समाप्त
बुधवार, 24 जून 2009
जब तुम थीं ......
जब तुम थीं तो तुम्हारे कपडों से ,बदन से ,वह खुशबु आती थी कि खाना खाने की तीव्र इच्छा होती थी आप मैं समाई खुशबु उत्प्रेरक का कार्य करती थी हर चीज कितनी स्वादिष्ट ,कितनी अच्छी कि आज भी वह स्वाद याद करते ही मुंह मैं पानी आजाता है लेकिन अब वे स्वादिष्ट व्यंजन कहीं नही मिलते ,न किसी रेस्टोरेंट मैं ,न किसी होटल मैं ,न किसी ढाबे पर कैसे बनाती थीं आप हमारा भोजन ?मुझे पता है उस भोजन मैं इतना प्यार ,इतना स्नेह ,इतना दुलार भरा होता था कि उसे अन्य किसी मसाले की आवश्यकता ही नही होती थी आज पता नही भोजन सुस्वाद और अच्छा क्यूँ नही बनता ?
तुम थी तो कभी अपने को असुरक्षित समझा ही नही ,आज आलम ये है कि अप आप को कहीं सुरक्षित महसूस नही करते जिम्मेदारियों का कभी एहसास ही नही हुआ ,जो कहा वह कर दिया उस पर भी दस बार कह लिया ,उसके बदले में कुछ न कुछ पाने की कामना की आज जिम्मेदारियों का पहाड़ सर पर उठाए फिरती हूँ जिसने जीना दूभर कर दिया है
तुम थी तो लडाई कितनी होती थी ?आप संभालते -संभालते परेशान हो जाती थी हम भाई -बहनों की लडाई से अब हम लड़ते नही ,बात भी ज्यादा नही करते एक -दुसरे को देख कर आँखे चुराते हैं ,बातों में उलाहना नही ,शिकायत नही ,सब कुछ शांत है यह शान्ति हमें अच्छी नही लगती तुम थी तो मान -मनुहार थी ,रूठना -मनाना था अब न कोई रूठता है न मनाता है ,उसे उसके हाल पर ही छोड़ दिया जाता है क्या हो गया है सबको ?कोई बताता क्यों नही ....?
जब आप थी तो हर बात आपको बताती थी एक -एक बात दौड़ -दौड़ कर बताने आती थी ,फ़िर बातें इकठ्ठी करके बताने लगी क्योंकि जल्दी मिलने का मौका ही नही मिलता था अब भी बहुत सी बातें मन में आती हैं ,इकठ्ठी भी करती हूँ लेकिन .......किसको बताऊं ,कौन सुनेगा .....कौन ध्यान देगा ,कौन समझाएगा ......शायद ये बातें अब यूँ ही रह जाएँगी मैं यूँ ही कहने को तडपती रह जाउंगी ............
तुम थी तो जीवन हरा -भरा था खुशियों का सागर था ,हर दिन नया दिन ,हर रात नयी रात थी अब इस सागर में लहरें नही ,मोटी नही ,उल्लास नही ,सब कुछ विलीन हो गया है
क्या ये सब कभी वापस मिलेगा ..............नही मिल सकता ........क्योंकि जननी तो जीवन में एक बार ही मिलती है उसे पाने के लिए पुनर्जन्म लेना होगा
समाप्त
गुरुवार, 11 जून 2009
निरंतर होता सरलीकरण शिक्षा का स्तर गिरा रहा है -विपक्ष
यदि सरलीकरण न होता तो रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ संस्कृत में ही पढे जाते तो सबकी समझ में न आते कितने ही आयुर्वेदिक नुस्खों ,शास्त्रों से हम अपरिचित ही रह जाते
सरलीकरण से बेरोजगारी की समस्या भी कुछ हद तक हल होगी ७०% अंक लाने वाले विद्यार्थी ८०-९०%अंक से उत्तीर्ण होंगे और नौकरी के अवसर बढेंगे
आप ही बताईए सरलीकरण के इतने लाभ होने के बावजूद उसे नकारना कहाँ की समझदारी है ?क्यों कुछ लोग शिक्षा के स्तर का बहाना बना कर विद्यार्थियों पर मायूसी और परेशानियों का बोझ डालना चाहते हैं ?कुछ लोग नही चाहते कि आज का विद्यार्थी आत्म विश्वास के बल पर जिन्दगी में आगे बढे वे आज के युग में भी लकीर के फकीर बने बैठे हैं मेरे विपक्षी मित्र का कहना कि सरलीकरण से विद्यार्थी मेहनती नही रहे ,गलत है मित्र सरलीकरण तो एक डोर है जिसके सहारे विद्यार्थी जीवन में आगे बढ़ सकता है आज के इस तेज रफ्तार के युग में सरलीकरण विद्यार्थी के लिए वह मित्रोरेल है जिसके सहारे वह सरलता सुगमता ,से अपनी मंजिल प्राप्त कर सकता है
आज हमारा देश हर क्षेत्र में प्रगतिशील है फ़िर शिक्षा के क्षेत्र में क्यों पिछडे ?क्यों वही क से कमल पर अटके रहें ,क से कर्मयोगी भी होता है सच्चा कर्मयोगी वही होता है जो सरलीकरण को अपनी वैसाखी नही अपितु अपना नया हथियार बना कर कर्मक्षेत्र में विजय प्राप्त करे
सरलीकरण की इस नई नीति के साथ ही हम नए युग से जुड़ सकेंगे
"आज पुरानी जंजीरों को तोड़ चुके हैं
क्यों देखें उस मंजिल को जो छोड़ चुके हैं
नया दौर है ,नई उमंगे ,अब है नई कहानी
युग बदला ,बदलेगी नीति ,बदली रीति पुरानी "
समाप्त
बुधवार, 10 जून 2009
बस्ते का बोझ बच्चों की उन्नति में बाधक या साधक
कक्षा ५ तक तो सरकार की मेहरवानी से पास होता गया जब कक्षा ६ मेंआया तब होश ठिकाने आए कि मुझे तो कुछ भी नही आता इस बस्ते के बोझ ने न मुझे पढ़ने दिया न खेलने ही बस इसे लादे रहने की आदत हो गयी है इसके बिना मुझे अधूरापन लगता है यह मेरी पीठ का साथी बन गया है मझे नीद भी तभी आती है जब मम्मी पीठ पर वजन रखती है
एक बच्चे का सम्पूर्ण विकास तभी हो सकता है जब वह स्वच्छंद वातावरण में पले- bआढे बच्चे की पढाई के लिए आवश्यकता है प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण वातावरण की ,जहाँ पानी की कलकल सुने तो पक्षियों की चहचहाहट भी समझे ,जहाँ हवा की सरसराहट होऔर फूलों की महक हो ,बच्चों की खिलखिलाहट हो प्रकृति के नजदीक ही वह जीवन की पढाई पढे जिससे वह संसार और सृष्टि से परिचित हो ,उसकी सुन्दरता से रूबरू हो
आज के बोझिल वातावरण में ,प्रतियोगिताओं की होड़ में वह कही दब सा गया है आज बच्चे पर सिर्फ़ बस्ते का ही बोझ नही है ,उस पर माता -पिता की आकाँक्षाओं का बोझ भी है अभिभावकों के सामाजिक स्तर को बढाने का उत्तर दायित्व भी है इन सब को उसका बाल मन संभाल नही पाताऔर वह आगे बढ़ने की अपक्षा मौत को गले लगाना श्रेयकर समझने लगता ही
शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए बच्चे का चारित्रिक विकास करना जो आज किताबी बातें रह गईं हैं चारों ओर छाए भ्रष्टाचार बच्चे के जीवन को निराशा और हताशा से भर दिया है वह निश्चित ही नही कर पाता कि किस रास्ते पर चले
यह सच है कि वह किताबों के बोझ के चाबुक से वह अपना रास्ता जल्दी तै कर लेता है ,लेकिन हो सकता है कि वह मंजिल से पहले ही दम तोड़ दे इसलिए मैं अनुरोध करता हूँ कि इस ओर कुछ सार्थक कदम उठाए जांए जिससे बच्चे का चहुमुखी विकास हो वह सिर्फ़ ज्ञान की मशीन बन कर न रह जाए बस्ते के बोझ को आप ज्ञान की अधिकता समझने की भूल न करें -
मेरा शरीर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था ,तुम्हे धोखा हुआ होगा "
समाप्त
बस्ते का बोझ बच्चों की उन्नति मैं साधक
जिस तरह समाज में आधुनिकता के साथ पुराने रीति -रिवाज कभी -कभी बीच में अंगडाइयां लेकर अपनी उपस्थिति जता देती हैं उसी तरह कुछ लोग आधुनिक शिक्षा को बोझ बता कर प्रगति में बाधक बन रहे हैं वास्तविकता तो यह है कि माता -पिता ,शिक्षक बच्चों को बस्ते के जिस रूप से अवगत करायेंगे ,वे उसे वही समझेंगे अब ये उनके उपर निर्भर है कि वे बस्ते को बोझ बनाते हैं या जिम्मेदारी ?बचपन ही वह पडाव होता है जहाँ से बच्चे के व्यक्तित्व और जीवन का स्वरूप आरम्भ होता है जब बच्चा अपनी किताबें बस्ते में डाल कर विद्यालय जाता है तो वह उसका बोझ नही अपितु उसमें उसके व्यक्तित्व की परछाईं ,उसके मां-बाप के सपनों को साकार करने का सामान ,समाज के प्रति जिम्मेदारी का सफर नामा होता है माता -पिता का यह सोचना कि बच्चा इतना भारीबस्ता कैसे उटाएगाअपने बच्चे को कमजोर बनाने की नीति है ,उनका लाड -प्यार ही उसकी प्रगति में बाधक बनता है यदि बच्चे को बस्ता भारी लगता है तो उसका समाधान भी है प्रति दिन प्रयोग होने वाली पुस्तकों विद्यालय में संग्रहित करके रखें इससे पुस्तकों का बोझ भी कम होगा और उनका रखरखाव भी टीक होगा
एक तरफ तो माता -पिता बच्चों को आधुनिक बनाने का प्रयत्न करते हैं ,फ़िर पढाई में आधुनिकता और बदावेका विरोध क्यों ? याद रखिए अधिक ज्ञान के लिए ज्ञान के स्रोत भी अधिक होंगे ,कम ज्ञान के स्रोत से बच्चे आगे कैसे बढ़ पाएंगे प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरुकुल में जाते थे शिक्षा के साथ -साथ उन्हें गृह कार्य भी सिखाए जाते थे जंगल से लकडी काटना ,पानी भरना आदि भगवान श्री कृष्ण और श्री राम ने भी ये कार्य किए थे इतिहास गवाह है कि वे महान पुरूष हुए लकडियों के गत्तर uताए तो संसार की विपदाएँ सर पर धर लीं ,पानी भरा तो संसार की विपदाओं को हर दिया
मेहनत का बोझ ही मनुष्य को सफल और महान बनता है बच्चे को बस्ते के बोझ से डराकर कमजोर नही बल्कि अपनी जिम्मेदारियों का एहसास कराकर कल का शिवाजी ,राणाप्रताप ,ऐ .पी .जी .अब्दुलकलाम बनाने का यत्न कीजिए हर पीडी अगली पीडी से यही कहती है -...
'हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के '
देश को आने वाले तूफानों से तभी बचाया जा सकता है जब हमारे बाजू और कंधे मजबूत हों उन पर विद्या धन बोझ नही बल्कि गांडीव हो
समाप्त
मंगलवार, 9 जून 2009
चापलूसी करो -आगे बढो- विपक्ष
जिस प्रकार बलशाली शेर के मुख में जानवर स्वयम नही घुसते ,उसे इसके लिए स्वयम प्रयत्न करना पड़ता है हम मनुष्य होकर स्वयं अपने बल पर कार्य न करके यदि चापलूसी का सहारा लेते हैं ,यह निश्चय ही शर्मनाक है सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आजतक मनुष्य ने जो भी विकास किया है ,वह सब उसके परिश्रम की देन है
चापलूसी करो आगे बढो- पक्ष
रविवार, 7 जून 2009
विद्यार्थी जीवन में राजनीति, छात्रों को पथ भ्रस्त कर देती है
सरकार ने भी मतदान की उम्र २१ से घटा कर १८ कर दी छात्र जीवन में राजनीति का केवल वही विरोधी है जो लोकतंत्र के विरोधी हैं यदि छात्र जीवन से राजनीति न सीखी जाए तो राजनीति सीखने की सही उम्र क्या है ?राजनीति में पनपा भ्रष्टाचार भी इस बात का साक्ष्य है कि आज -कल राजनीति में कम लोग रूचि ले रहे हैं जो आगे चल कर बेहद खतरनाक हो सकता है
इसे रूचि कर बनाया जाए ,प्रतियोगी बनाया जाए ,अन्यथा विश्व लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा और राजतन्त्र अथवा तानाशाही से विश्व मंच पर हा -हा कार मच जाएगा कुछ लोग ही प्रगति शील ,अग्र्य्नीय और प्रेरक होंगे राजनीति और लोकतंत्र एक दुसरे के पूरक हैं देश प्रेम की भावना से ओत प्रोत अनुभव अथवा कुछ सीखने की भावना और कुछ कर गुजरने की यही सही उम्र है विश्व में इस बात के अनेक उदाहरन हैं कि छात्र जीवन राजनीति न सीखने वाले लोग नौसिखिए ही रहते है
वर्तमान समय को अभिशापित करने वाले लोग आतंकवाद ,भाई -भतीजावाद एवं समाज में पैदा होने वाली अनेक व्याधियों को जन्म देते हैं क्योंकि इन्होंने कभी भी नियमित कोई सीख ,ज्ञान ,अनुशासन और सहनशीलता सीखी ही नही
आज हमारे पास अच्छे डॉक्टर ,वैज्ञानिक ,प्रशासक उपलब्ध हैं ,कमी है तो केवल अच्छे नेताओं की जिनके आभाव में हमारा जनतंत्र खतरे में है आज राजनीति में स्वस्थ ,सुंदर ,शिष्ट आचरण की कमी है आए दिन संसद में होने वाले अशोभनीय आचरण हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि आज विद्यलों में अच्छे नेता बनाने का भी कोर्स शामिल किया जन चाहिए जिससे राष्ट्र को युवा ,होनहार ,प्रतिभाशाली और आदर्शमय कर्णधार मिल सके ,तभी राष्ट्र का भविष्य सुखमय और उज्ज्वल हो सकेगा कबीरदास ने कहा है _
" आचरी सब जग मिला ,विचारी मिला न कोय
कोटि आचरी बारिये ,जो एक विचारी होय "
समाप्त
शुक्रवार, 5 जून 2009
विद्यार्थी जीवन में राजनीति छात्रों को पथ भ्रष्ट कर देती है
शुक्रवार, 29 मई 2009
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बच्चे उद्दंड हो रहे हैं |-पक्ष और विपक्ष
अरे कक्षा में इतना शोर क्यों हो रहा है ?
अध्यापक परेशान क्यों है?
विद्यालय में पुलिस क्यों आई है?
मैं बताती हूँ ..... ये इक्कीसवीं सदी के विद्यार्थी हैं इन्हे सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षकों के दंड से बचाकर स्वतंत्र और शक्तिशाली बनाया है
अध्यापकों का अपमान करना आज आम घटना हो गयी है जिसका प्रभाव परिवारों पर भी दिखाई देता है कोई अपने माता -पिता को घर से निकलता है तो कोई उनके साथ अभद्र व्यवहार करता है जब पौधे ही अच्छे न होंगे तों फसल अच्छी कैसे होगी आज जब अध्यापक के सर पर नौकरी बचाने की तलवार टांग दी गयी है तों बच्चे उद्दंड क्यों न होंगे बच्चे तों बन्दर की तरह होते हैं उन्हें अनुशासित करने के लिए लकडी नहीं होगी तों अनुशासन कैसे होगा ?
महोदय, सदियों से रीति चली आ रही है कि एक बद मस्त हाथी को महावत ही अपने अंकुश द्वारा नियन्त्रित करता है महावत जितना तजुर्वेकार होगा हाथी को उतना ही नियन्त्रित कर लेगा ताकि वह किसी की हानि न कर सके इसी तरह विद्यार्थियों को भी अनुशासित करने के लिए दंड एवं भय की आवश्यकता है प्रचीन काल से चली गुरु शिष्य परम्परा धीरे -धीरे लुप्त होती जा रही सुप्रीम कोर्ट ने इसे विनाश के कगार तक पहुंचा दिया है जिस तरह रोगी शरीर के लिए कडवी दवाई के साथ -साथ शल्य चिकित्सा की भी आवश्यकता होती है उसी प्रकार उद्दंड बच्चों को सुधारनेके लिए दंड की आवश्यकता होती है जहाँ समझाने से बात न बने वहां भय से काम कार्य जाता है शिक्षक का कर्तव्य बच्चे का चहुँमुखी विकास करना होता है उसके लिए उसे कुछ भी क्यों न करना पड़े
महोदय बढ़ई जब लकडी से कोई सामान बनता है तबउस पर तीखे -नुकीले औजारों से वार करता है उसके इन्हीं वारों से एक साधारण लकडी सुंदर रूप लेकर बाजारों मेंऊँचे दामो पर बिकती है उसी तरह विद्यार्थी एक लक्कड़ है और शिक्षक अपने विद्यार्थी को सुधारने के लिए हर तरह से कार्य करता है ताकि वह एक अच्छा नागरिक बने
उदंडता से किसी का भला नहीं हुआ है प्राचीन काल के कंस रावण शिशुपाल के अंत से कौन परिचित नहीं है ? हिटलर मुसोलिनी, सद्दाम हुसैन का अंत भी सुखद न था के विद्यार्थी का भविष्य क्या होगा ;यह चिंतनीय है सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बच्चों की उदंडता को वह बढावा दिया है कि उसे रोकना असम्भव प्रतीत होने लगा है इस फैसले हो पैर:विचार करने की आवश्यकता है अन्यथा भविष्य क्या होगा यह प्रश्न भयावह है अंत में में यही कहना चाहती हूँ
"हम कौन थे क्या होगये और क्या होंगे अभी
कलकल कर के बहने दो ,
खुले गगन में बच्चों को ,
खुले पंखों से उड़ने दो ,
बच्चे तो हैं फूलों की क्यारी ,
इन फूलों को मस्त हवा में उड़ने दो
महोदय बदलते समय के साथ साथ सब कुछ बदल रहा है आज अध्यापक और बच्चों का सम्बन्ध गुरु -शिष्य का नही अपितु मित्रता का भी माना जाता है हर सम्बन्ध की कुछ सीमाएं होती हैं परन्तु आज कुछ शिक्षक इन सीमाओं को पार करके विद्यार्थियों के साथ दुर्व्यवहार करने लगे हैं जिससे इन विद्यार्थियों के भविष्य पर ही नही अपितु उनके शारीरिक और मानसिक पटल पर भी प्रभाव पड़ता है
कुम्हार कितने प्यार से मिट्टी गूँथ कर फ़िर उसे चाक पर चदाता है और अपने कोमल स्पर्श से वर्तनों को आकार देता है ठीक वैसे ही अध्यापक भी प्यार से विद्यार्थी को संवारता है न कि कठोरता से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को हमें सहमति देनी चाहिए ,लेकिन यह ध्यान भी रखना होगा कि विद्यार्थी को गलत राह में भटकने से रोकने के लिए विनम्रता और सहजता का रास्ता अपनाना चाहिए हम गौतम और गांधी के देश वासी हैं संयम हर मुस्किल से लड़ने का हथियार था ,है और रहेगा
बच्चे आने वाले कल का भविष्य हैं जब भविष्य ही सहमा हुआ होगा तो देश की उन्नति कैसे होगी हमे तो मुस्कराता हुआ उज्ज्वल भविष्य चाहिए
नाया सवेरा आने दो ,किरणों से किरने मिलने दो
नव ऋतू के आगमन में नव कोंपलें खिलने दो
प्रेम भाव के मंद -मंद झोंकों को तुम बहने दो
नन्हें -नन्हें फूलों को झटको न ,महकने दो
lafing buddha ka mahtv
मंगलवार, 3 मार्च 2009
आंसू
में भी आँसू |
आँसू सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम हैं जिसे भाषा में कह सके, वह कहने में समर्थ है आँसू| जिस तरह उमड़ती -घुमड़ती घटाएँ बरस कर सम्पूर्ण वातावरण को स्वच्छ कर देती हैं ,माहौल को सुखमय बना देती हैं उसी तरह आंसू भी बरस कर दिल के गुबार को निकाल देते हैं |अब ये गुबार चाहे किसी भी भावना की उपज क्यों न हों |दुख हो या स्म्रति ,प्यार हो या गम दिल का भारीपन तो निकल ही जाता है |आंसू आए की सब कुछ हल्का,सुंदर, साफ़| इनका खारीपन समुद्र की गहराई से ही आया होगा |समुद्र रत्नाकर के साथ -साथ पता नहीं कितने विषैले जीव जन्तुओं को समेटे रहता है |इसी से उसका पानी खारा हो जाता है |आंसू भी भावनाओं की उमड़ -घुमड़ से द्वेष ,ईष्या आदि भावो के समिश्रण से खारी हो जाता है |ये बह जाते हैं तो निकल जाता है भावनाओं का ज्वार और शांत हो जाता है मन -मस्तिस्क और साफ हो जाती है आँखें |
हाँ अधिकता किसी चीज की अच्छी नहीं होती |ज्यादा आंसू बहने से आँखें तो लाल हो ही जाती हैं ,सर भारी हो जाता है |शरीर अस्वस्थ हो जाता है ज्वर के साथ -साथ पीड़ा भी सताने लगती है सीमित सब कुछ अच्छा |रहीम जी ने कहा है कि रहिमन विपदा हु भली जो थोरे दिन होय 'अति की सीमा को पर न करें |इतिहास गवाह है कि ये सैलाब लाने में भी समर्थ हैं |
हैं कोई ऐसे माता -पिता जो बच्चों के आंसू देख कर तडप न उठे |मां की आंखों के आंसू क्या कोई झेल सका है |कोई भी प्रेमी क्या प्रेमिका के आंसू देख कर चुप बैठ सका है |इन आंसुओं ने महा भारत करा दिए |दुसरे के आंसुओं से डरकर रहिए |आंसुओं की आह बुरी होती है |न रोएये न रुलएये |रोएँ तो सभंल कर रोएँ |
गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009
आख़िर
"लो बेटा "पिता ने जेब मैं हाथ डाला और बिना गिने ही नोटों की गड्डी उसे थमा दी |पिता को अनेक चुम्बनों का उपहार देकर ,मनोज खुशी से उछलता हुआ वहां से चला गया |
मीरा देवी यह सब देख कर अवाक् रह गयी और आज फ़िर न चाहते हुए भी पति से उलझ पडी कि आपने बिना पूछे रुपए क्यों दिए |वह क्या करता है ,कहाँ जाता है ?उसे रुपए क्यों चाहिए ?यह पूछना ही चाहिए था |
पति ने लापरवाही से क्रोध भरी नजर पत्नी पर डाली और कहा "जवान लड़का है उससे पूछना क्या ?जो करेगा ,ठीक ही करेगा "
लेकिन बच्चे को इतने रुपए नही देने चाहिए "मीरा देवी ने प्रतिवाद किया |
तो क्या उसे दो रुपए दे देता "वह किसी क्लर्क का बेटा नहीं गृह मंत्री का बेटा है \नारायण सिंह ने गर्व से गर्दन झटकी और चले गये
जिस दिन से पति गृह मंत्री बने उस दिन से जनता के शोषण का पैसा निरंतर घर की सम्रद्धि को बढाता चला जा रहा था |लेकिन मीरा देवी इससे खुश न थी |एक प्रधानाचार्य की बेटी जो थी ,उत्तम संस्कारों में पली वह इन नवीन संस्कारों को अपना न पा रही थी |निरंतरयह शोषण का पैसा उनका मानसिक शोषण कर रहा था |वह प्रत्येक छणएक घुटन सी महसूस करती थी ,एस आलीशान बंगले में ,जिसमें सुख सुविधायों की कोई कमी न थी |पति को नाश्ता कराते समय उन्होंने बच्चों का पुनः प्रसंग उठाया की आप बंच्चों को सोच -समझ कर सुविधाएँ दें क्योंकि ये सुविधाएँ बच्चों को सही रास्ते से भटका सकती है |नारायण सिंह झल्ला पडे |तुम स्त्रियों से भगवान बचाए |सुख में भी दुखी कि बच्चे कहीं बिगड़ न जायें |हमेशा अनिष्ट की आशंका से दुखी \पैसा हो तो दुखी न हो तो दुखी हैं ही |अरे पैसा है तुम स्वयं मौज करो और बच्चों को भी करने दो ...|लेकिन तुम न ख़ुद चैन से रहती हो और न रहने देती हो |आख़िर कलम घिसने वाले की औलाद जो हो वही मेरे बेटे को बनाना चाहती हो |पिता का प्रसंग आने पर मीरा देवी मन में उठते हुए ज्वार को रोक कर वहां से उठ गईं |
प्रत्येक छण मीरा देवी का चिंता में गुजरता था |न पति का साथ न पुत्र का |भौतिक साथ तो साथ नहीं कहा जा सकता ;जब तक वह मानसिक आध्यात्मिक स्तर पर साथ न हो |उसे कभी -कभी घ्रणा होती अपने पति से लेकिन भारतीय नारी के संस्कारों से मंडित वह नारायण सिंह का साथ देती \नारायण सिंह भी यह बात बखूबी जानते थे |
"आज मुझे राजस्थान में आयी बाद् का दौरा करने जाना है ,दो -चार दिन लग जायेगे "नारायण सिंह ने मीरा देवी से कहा |
"कपडे और आपका जरूरी सामान रखवा देती हूँ \कब तक जायेगे ?
"यही कोई दस बजे,
मीरा देवी के मन में अनेक शंकाओं ने जन्म लिया |उन्होंने सविनय पूछा
मैं भी साथ चलूँ "वहां भाई के यहाँ भी होती आउंगी |
चलो नारानयन सिंह ने हामी भरी
मीरा देवी खुश हुई ,भाई यहाँ तो जाने का बहाना था |वह सचमुच में बाड ग्रस्त लोगों की मदद करना चाहती थी
बाढ़ की भयंकरता को देख कर मीरा मीरा देवी हैरान रह गईं बच्चे ,बूढे जवान स्त्री पुरुष सभी सुरक्षित स्थान के खोजमेँ भटक रहे थे . सबके चेहरों पर विषाद की रेखा थी |औरतें छोटे बच्चों को छाती से चिपकाए और जरूरी सामान को सर पर रखे थी |एसीस्थिति मेंभी अपने कर्तव्य को निभाने की भरपूर कोशिस कररही थी |पशु तो पानी में बहते ही चले जा रहे थे |जहाँ मानव की रक्षा नहीं वहाँ पशुओं की कौन कहे ?घरेलू सामान पानी के बहाव के साथ बहा जा रहा था |घर के लोग असहाय से किंकर्तव्य विमूढ़ से खडे थे |मीरा देवी का ह्रदय भर आया |अविरल अश्रु धारा बह चली |उनका ह्रदय इस भयानक द्रश्य को देख कर हा -हा कार कर उठा |चारों ओर पानी ही पानी जैसे इस क्षेत्र में प्रलय आ गयी हो |अभी तक उन्होंने पानी का मनोहारी रूप ही देखा था ,जो अम्रत के समान जीवन देने वाला होता था |प्रक्रति के सौन्दर्य को अपनी छटा से मनोहारी बनाने वाला होता था लेकिन .....आज पानी का जो प्रलयंकारी रूप देखा उससे वे स्तब्थरह गईं |
नारायण सिंह भी इस द्रश्य से विचलित नजर आ रहे थे ,लेकिन फिर भी बीच -बीच में फलों का जूस व् चाय की चुस्कियां लेना न भूले थे |आज के भयावह द्रश्य ने नारायण सिंह जैसे व्यक्ति को भी हिला कर रख दिया था |आखिर वह भी इंसान हैं ,उनके दिल में भी भावनाएं हैं ,यह और बात है कि कुछ भौतिक सुख इन भावनाओं पर हावी हो जाते हैं |यदा -कदा वे इस कठोर आवरण को भेद कर प्रकट हो जाती हैं और मानव को इस वेग में बहा ले जाती हैं |वास्तव में ये भावनाएं ही हैं जो मानव को एक महा मानव भी बना देती हैं |इन भावनाओं के संवेग से ही व्यक्ति बडे से बडा कार्य भी सहजता से कर जाता है |यदि ये भावनाएं न होती तो शायद यह संसार इतना सुंदर न होता |
पति को परेशान व् विचलित देख कर मीरा देवी ने सहानुभूति का हाथ पति के हाथ पर रखा तो उनकी आखें छलक उठी ,मीरा देवी देख रही थी कि जहाँ कलिंग की रणभूमि की भयाबहता एक सम्राट को सन्यासी बना सकती है तो उनके पति को भी यह बाढ़ का भयावह द्रश्य कुछ बना कर ही छोडेगा |
दुसरे दिन प्रात- काल समाचार पत्र में मुख्य समाचार थे -ग्रह मंत्री ,नारायण सिंह ने त्याग पत्र दिया .....बाढ़ पीडितों की सहायता के लिए अपनी सम्पत्ति का दान किया .......पत्नी सहित ग्रह मंत्री शरणार्थी कैम्पों में व्यस्त |
आखिर वह भी इंसान हैं |