सोमवार, 29 जून 2009

नियति

नियति
मैं नियति हूँ आप मुझे जानकर भी नही जानते इसलिए अपना परिचय देना आवश्यक है यथार्थ यह है कि कुछ को हम जानने के इच्छुक रहते हैं और किसी को जानकर भी नही जानना चाहते मैं उन्ही में से हूँ विडम्बना तो यह है कि मुझे हर बार ,हर युग में अचीन्हा गया ,लेकिन मैंने अपना अस्तित्व किसी न किसी रूप में बनाए ही रखा
सृष्टि के प्रारम्भ में मेरे अस्तित्व के बिना सृष्टि अधूरी थी हर तरफ नीरसता थी ,आलस्य था कोई आकर्षण न था ईश्वर ने मुझे बना कर सृष्टि के क्रम को आगे बढाया आदिकाल में श्रद्धा के रूप में मैंने त्याग ,बलिदान ,सहिष्णुता ,सहनशीलता ,प्रेम दया और ममता के भावों से सभी का परिचय कराया लेकिन आदि पुरूष मनु ने मुझे उस काल में भी अपने स्वार्थ की पूर्ति कर उपेक्षित किया ,मेरा तिरस्कार किया लेकिन मेरे अस्तित्व को मिटा न सका थक हार कर ,निराश हो कर वह मेरी ही शरण में आया मैंने उसे माफ़ कर खुले दिल से अपनाया ,मेरी इस सहृदयता को युग ने मुर्खता समझा ,उसका महत्तव न समझा अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए हमारी भवनों से खेलते रहे और धोखा दे कर हृदय हीन बनाने की कोशिश करते रहे लेकिन मैंने अपनी ममता ,स्नेह और मानवीय भावनाओं का स्रोत न सूखने दिया
सतयुग में सत्य के कारन अंहकार और स्वार्थ को स्थान न मिला इसलिए उस युग में सत्य के साथ मिलकर सर्व भुत हो गयी जैसे -जैसे काल चक्र आगे बढ़ता गया वैसे -वैसे मनुष्य अधिक स्वार्थी ,लालची .अहंकारी और शक्ति शाली होता गया जब शक्ति और सत्ता किसी के पास होती है तो वह कब अत्याचारी हो जाता है पता ही नही चलता यह शायद वह स्वं भी नही जान पता लेकिन अपनी शक्ति का प्रयोग करना वह कभी नही भूलता
त्रेतायुग में मुझे निरपराधी होने पर भी कभी सीता के रूप में अग्नि -परीक्षा देनी पडी ,कभी सुलोचना के रूप में सती होना पडा हार युग में हार परिक्षा में सफल होती रही क्योंकि इसका आधार त्याग और बलिदान रहा स्वार्थ नही रहा इसलिए विपरीत स्थिति में भी विजयश्री ने अपना बहुमूल्य हार मुझे ही पहनाया।
काल चक्र की गति के साथ साथ मेरी गति भी बदलती गयी द्वापर युग जिसे क्रिशनयुग कहना ही उपयुक्त होगा में ,यग्यसेनी छली गयी ,अपमानित की गयी यहाँ तक स्त्री जाती की मर्यादा को भी छन्न भिन्न किया गया यशस्वी पंच - पतियों के सामने मैं , द्रोपदी लाचार और अपमानित हुई इसका अनुम्मान यह काल भी नही लगा सकता इतिहास ने तो कुछ साक्ष्य ही दिखाए हैं उसने उस वेदना को ,उस आत्म ग्लानी को नही देखा न भुगता उसे मैंने भुगता है उसे मैंने तिल -तिल जिया है और जीने में न जाने कितनी बार मरी हूँ हर मौत और भी भयानक और भी क्रूर होती गयी इस अपमान ने ,इस टीसन ने ,इस वेदना ने मुझे इतना जलाया की यह जलन हिमालय की श्रंखलाओं के बीच हिम आक्षादित होकर भी शांत नही हुई क्या तुम्हे बर्फ से उठता हुआ धुंआ दिखाई नही देता ?देता है ....न ये मेरी आहें हैं ,ये मेरी पीड़ा है जो आज भी धधक रही है कुछ गलतियाँ क्षम्य होती हैं तो कुछ चाह कर भी इस परिधि में नही आती
इतना सब होने के बाद भी मैं हारी नही ,टूटी नही ,बिखरी नही ,मैं अस्तित्वहीन न हुई ,क्योंकि मेरा एक रूप था ,एक आकार था ,एक व्यक्तित्व था इसलिए अस्तित्ववान बनी रही
काल रथ का पहिया अब उस जगह आकर स्थिर हो गया है ,जहाँ कर्ण की मौत सुनिश्चित है एक सत्य की मौत ,एक विश्वाश की मौत यह काल चक्र कलियुग में आकर थम गया है अंहकार ,स्वार्थ ,लोभ ,काम ने इस काल को अपने आगोश में लेलिया है परिणाम .......स्पष्ट है कलीयुगी पुरूष ने अपनी ही सहचरी को ,अपनी ही शक्ति को ,अपनी ही प्रेरणा को शक्तिहीन करने का बीडा उठा लिया है अंहकार और शक्ति के मद ने उसे कामांध ही नही एसा अँधा बना दिया है जो अपने भले -बुरे को भी नही पहचान सकता
क्रूरता अपनी चरम सीमा पर है दया ममता ,कर्तव्य ,सच्चाई और ईमानदारी ने किनारा कर लिया है काली स्थान में अब सिर्फ़ शैतान का घर है इसने पढे -लिखे ,समझदार व्यक्ति को विज्ञान के उन अनुसंधानों की ओर धकेल दिया है जहाँ वह ईश्वर की सृष्टि में भी दखलंदाजी करने लगा है विज्ञानं ने गर्भस्थ शिशु के बारे में सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करा दी है जिससे पुरूष ने अपनी इच्छा को स्त्री पर लाड दिया है कभी वह स्वयं बेटा चाहता है तो कभी इस चाहत में माता और बहन को भी शामिल कर लेता है और भ्रूण हत्या जैसे अपराध में प्रवृत्त हो जाता है
इस कृत्य ने आज संसार को उस मोड़ पर लाकर खडा कर दिया है जहाँ से सृष्टि के रास्ते भी बंद हो जाते है न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी सदियों से कभी गला दबा कर ,कभी जहर देकर जो कन्याओं की ह्त्या की जाती थी आज वे निर्भीक तौर पर इसे की जाती हैं की न उन्हें कफ़न नसीव होता है न अंत्येष्टि आज उनकी अंत्येष्टि छोटे -छोटे टुकडों में काट कर नाली में बहा कर की जाती है कोई रोता नही ,बिलखता नही ,तडपता नही ,सब कुछ योजना बद्ध तरीके से होता है
पहले बालिका को जन्म लेने के बाद मारा जाता था आज उससे कोख में पलने का सुख भी छीन लिया उसकी जन्म दात्री जो सब पर ममता लुटाती है इसे मानव रुपी दानवों के दबाव से नही बचा पाती
पहले तो मैं सामना कर लेती थी ,जूझ लेती थी ,हरा देती थी ,झुकने को मजबूर कर देती थी क्योंकि उस समय मेरा रूप था आकार था बिना रूप और आकार के मैं कैसे लडूंगी ?अब तो मानव को मुझे इस जमीन पर लाने मेंभी हिचकिचाहट होने लगी है
याद रखिए बिना बाती के दीपक निष्प्राण एवं निरर्थक होता है उसे अस्तित्व में लाने के लिए बाती के अस्तित्व को स्वीकारना होगा अन्यथा वह दृष्टिहीन आखों की तरह व्यर्थ होगा मनुष्य मेरी नियति को बदलने की लाख कोशिश करले ,वह मुझे मिटा नही पायेगा उसे फ़िर मेरे पास आना ही होगा मैं भी बहुत जिद्दी हूँ ,हटीहूँ जिस तरह हर युग में अपने आप को बनाए रखने में समर्थ रही हूँ उसे कलियुग में भी मेरे अस्तित्व को स्वीकारना पडेगा मैं हार नही मानूगी हर बार नई कोख की तलाश में रहूंगी तुम मुझे मिटाते रहो मैं फ़िर आउंगी ..........मैं फ़िर जन्म लूंगी ...........मैं फ़िर जन्म लूंगी।

शनिवार, 27 जून 2009

मिलही न जगत सहोदर भ्राता

जीवन में स्मृतियों का जितना महत्व होता है उतना ही बचपन में घटित घटनाओं का ,जो हमें याद तो नही होती लेकिन माता -पिता और पारिवारिक जनों से इतनी सूनी होती हैं की वे अनुभूतियाँ बन जाती हैं इसी ही एक घटना मुझे बार -बार गुदगुदाती है और प्रेम से सराबोर कर जाती है
मां बताती थी कि जब मैं करीव एक साल की थी तब मां को किसी काम से थोड़ी देर के लिए बाहर जाना पडा वे मुझे भाई के साथ ,जो मुझसे मात्र चार साल बड़ा था ,छोड़ कर चली गयी और दरवाजा बंद कर गयी जाते -जाते मुझे कुछ खाने को दे गयी जल्दी में सीडियों का दरवाजा बंद करना भूल गयी उन्ही सीडियों से एक मोटा बन्दर नीचे आ गया वह भी मेरे साथ खाने लगा पास खेलते भाई ने जब देखा तो मुझे नन्ही बाँहों में भर लिया और जोर -जोर से रोने लगा मां ने आवाज सूनी तो दौड़ती हुई आई उन्हें देख कर बन्दर खाने का सामान लेकर भाग गया लेकिन मेरा अग्रज अभी भी मुझे छाती से चिपकाए दहाडें मार रहा था
मां ने चुप कराते हुए कहा -
"बन्दर भाग गया ,अब क्यों रो रहा है ?
"लली को बन्दर खा जाता तो ?
और ......तुझे खा जाता तो ......?
वह नन्हा बालक विस्फारित नेत्रों से देखता ही रह गया ,बहन के स्नेह ने अपने बारे में कुछ सोचने ही कहाँ दिया था यह तो बचपन की भाई है ,वह आज भी एसा ही है
याद आती है मुझे एक घटना ,जब मैं लगभग नौ साल की होउंगी पन्द्रह अगस्त के कार्य -क्रम में दौड़ में मैंने भी भाग लिया था मैं उस दौड़ में द्वितीय स्थान पर रही मुझे एक सुंदर सा डिब्बा मिलाथा उस समय मैंने अपने भाई की ग्रीवा में जो गर्व देखा था उसे शब्दों में बांधना मेरे लिए सम्भव नही
मैं किसी भी कार्य -क्रम में भाग लेती चाहे वह स्कूल का हो बाहर का भइया के निर्देशन में ही होता एक बार मुझे जन्म-अष्टमी पर नृत्य प्रस्तुत करना था मैं भइया से पहले चली गयी नृत्य के बाद मैंने घर वालों को ढूंडा ,वे मुझे दिखे नही ,जबकि वे मुझे ही ढूंड रहे थे मैंने वगैर इंतजार किए घर का रास्ता पकडा भयंकर वारिश हो रही थी ,पता नही कैसे मैं अकेली घर पहुँच गयी दरवाजा बंद था ,मैं वहीं बैठ कर रोने लगी थोड़ी देर में देखा कि मेरा भाई छाता लिए मुझे देखने आ रहा था हर मुसीबत में जब भी सहारा चाहा वह मुझे पास ही मिला
जब हम लोग पढ़ते थे ,उस समय फ़िल्म देखने या बाहर घुमने की अनुमति मिलना उतना ही मुश्किल था जितना इमरजेंसी में छुट्टी मिलना लेकिन मेरा चतुर भाई किसी न किसी तरह यह कार्य कर ही लेता और सहभागिनी बनती मैं मां को अपनी ढाल बना हम यह काम कर ही डालते
पिता के स्वर्गारोहण के बाद हमने अपने छोटे भाई का विवाह किया काफी मेहमान आ गये थे ,सभी पीछे के आँगन में बांते कर रहे थे सर्दियों के दिन थे ,मैं करीब ग्यारह बजे पहुँची बच्चे कार से उतरते ही नानी के पास दौड़ गए मैं भी अन्दर चली ...द्रौईंग रूम के पास वाले कमरे में पिताजी का चित्र देख कर मैं उधर मुड़ gई उसके सामने खडी हुई कि भरा दिल उमड़ पड़ा दृष्टि धुंधली हो गयी ,शुभ अवसर पर आंसूं न बहाने का संकल्प बिखर गया मैं आंसुओं को रोकने की असफल चेष्टा कर रही थी कि मैंने अपने सर पर स्पर्श महसूस किया मुड़ कर देखा ,मौन खड़े भइया मेरा सर सहला रहे थे आंखों मेंआंसू थे लेकिन मुझे सर हिला कर रोने से रोक रहे थे आंसू पोंछ में पिता तुल्य भाई के पीछे चल पडी यत्न से छुपाए आंसू आंखों पर अपनी छाप छोड़ गये सबने देखते ही पूछा -
"रो रही थी क्या ?'
भइया ने कहा -
"ससुराल में मजे करके आयी है ,यहाँ काम करना पडेगा ..........रोयेगी नही क्या ..........?
सारे हंस पड़े ,में और भैया भी इसमें शामिल हो गये
जीवन के उतार -चढाव को मेरे भाई ने बहुत भोग है बीस वर्ष तक एक ही टी एस्टेट में शानदार नौकरी की ,लेकिन समय और भावः को कोई नही जान पाया है किसी की कमियों का खामियाजा कब ,कौन भुगतेगा कोई नही जानता नौकरी छोड़ दी ..........और दुसरी के लिए प्रयत्न जारी रहे ..........कभी मिली ....कभी छोडी ......फ़िर मिली ....फ़िर छोडी का क्रम चलता रहा लेकिन उन्हें कभी हताश और निराश नही देखा जिन लोगों ने धोखा दिया उन्ही की सहायता की
अदम्य साहस ,धैर्य ,शक्ति ,हिम्मत और सूझ -बुझ का उन्होंने परिचय दिया बच्चों की पढाई हो या परिवार की कोई जिम्मेदारी हो हमेशा ही उन्होंने पूर्ण सहयोग दिया
हमेशा पढ़ती और सुनती आई हूँ कि जो व्यक्ति सुख -दुःख को ,मान अपमान को समान भावः से ग्रहण करता है ,वह संत पुरूष होता है
मुझे इसे ही भाई की भगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त है

शुक्रवार, 26 जून 2009

बदला

बदला .......बदला ..................बदला ..............कितना उन्माद और अविवेक से लिया गया निर्णय होता है इसको बढावा देते हैं अपमान की भावना ,ईर्ष्या ,द्वेष और नीचा दिखाने की प्रवृत्ति जितनी यह भावना प्रबल होती है बदला भी उतना भयानक ,गम्भीर और दर्दनाक होता है इतिहास गवाह है कि बदले से कभी भी आत्म -संतुष्टि या कल्याण नही होता इससे होता है विनाश ......और सिर्फ़ विनाश बदले की भावना से किए गए कार्य आज तक किसी के लिए भी हितकर नही हुए ,न उस व्यक्ति के लिए जो बदला लेता है और न उस व्यक्ति के लिए जो बदले का पात्र बनता है

व्यक्ति को यह भ्रम होता है कि वह बदला लेकर ही चैन की नीद सोएगा पर हकीकत यह है कि वह बदला लेकर और भी बेचैन हो जाता है कभी कानून से बचने के लिए परेशान तो कभी आत्म -अपराध से परेशान चैन कहीं नही यदि कानून की पकड़ मैंआ गए और दंड पा गए तो ठीक अन्यथा आत्म ग्लानी मैं तिल -तिल कर जलना पड़ता है और जीवन घोर नर्क बन जाता है

बदला लेने वाला व्यक्ति जितना शक्ति शाली और सामर्थ्य वाला होता है बदला भी उतना ही विनाशकारी होता है प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल होती है कि यह जन्म -जन्मान्तर तक भी पीछा नही छोड़ती लेकिन एक बात निश्चित है ,प्रामादित है कि बदला और विनाश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं महाभारत का युद्घ द्रौपदी के अपमान का बदला था ,युवराज दुर्योधन के अपमान का बदला था समस्त कौरवों के साथ -साथ ग्यारह अक्शौहिदी सेना भी इसके विनाश मैं समाहित हो गयी

अम्बा ने अपना बदला भीष्म से पुनर्जन्म लेकर लिया शिखंडी के रूप मैं उसने किसका भला किया ?न अपना ,न परिवार का ?भीष्म के विनाश का आदि बना शिखंडी और स्वयम भी इस युद्घ की विभीषिका मैं समां गया
आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक आए दिन लोग इसकी आग मैं जल रहे हैं कही बदला लेने के लिए मित्र ,मित्र को मार रहा है ,भाई -भाई को मार रहा है ,पति पत्नी को मौत की नीद सुला रहा है तो पत्नी भी पीछे नही है साम ,दाम दंड ,भेद कोई इसी नीति नही है जिसका प्रयोग इसके लिए न किया जा रहा हो छल से ,बल से ,तकनीकी से ,धन से हर तरीके से मनुष्य बदला लेने मैं लगा है ,फ़िर चाहे वह स्वयं ही उसमें भस्म क्यों न हो जाए

सिर्फ़ शक्ति ही बदले की भावना को प्रबल नही करती बल्कि कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी बदले लेने के विभिन्न तरीके दुंद लेते हैं अभी हाल मैं घटित घटना ने तो हिला कर रख दिया हिजडों के एक समूह ने बच्चे के जन्म पर बच्चे के पिता से हैसियत से ज्यादा मांग की इस पर दोनों मैं कहा -सूनी हो गयी हिजडों ने उस अपमान का बदला उस मासूम बच्चे के पिता को नामर्द बना कर लिया और उसे भी नाचने -गाने के लिए मजबूर कर दिया मृत्यु दंड भी इसे अपराधियों के लिए कम है

बदला लेना और बदला चुकाना ,दोनों विपरीत शब्द हैं जहां एक का भाव ईर्ष्या ,द्वेष ,जलन ,घृणा से पूर्ण होता है ,वही दूसरा कृतज्ञता व् एहसान के भाव को दर्शाता है बदला लेना व्यक्ति के अपराध भावःऔर विचारों की संकीर्णता को दिखलाता है ,वही बदला चुकाना व्यक्ति के सहृदय ,विशाल दृष्टि कोण और सज्जनता का प्रतीक है बदला लेने से शत्रुता बदती है तो बदला चुकाने से प्यार कहीं -कहीं बदला चुकाने को बदला लेने के अर्थ मैं भी प्रयोग किया जाता है वहां बदला लेने की भावना उस सीमा से गुजर जाती है जहां इंसानियत बाकी होती है तभी बदला लेने को बदला चुकाना मान लिया जाता है

कैसे बचा जाए इस विनाशकारी प्रश्न से ?उत्तर एक और ............सिर्फ़ एक है -क्षमा .........

क्षमा वह भावः है जो बदले की उफनती भावना को शीतलता प्रदान करता है सहृदयता और मानवता की भावना फैलाता है मन के अन्दर व्याप्त जहर की तासीर को कम करता है हिंसा का प्रत्युत्तर अहिंसा ही है ,यदि हिंसा ही रहा तो यह आग बढ़ती ही जाएगी यदि कहीं सुकून मिल सकता है तो सिर्फ़ क्षमा से ,सहृदयता से प्यार से ,अपनेपन से

क्षमा करने से व्यक्ति का क्रोध कम होता है ,मन को शान्ति मिलती है ,मानवता की भावना का प्रसार होता है बदला वह है जो बदल दे चाहे वह भावना हो या कार्य

क्षमा करो ,सृजन करो ,कल्याण करो ,भला करो तभी यह बदले की भावना मिट सकेगी

समाप्त

बुधवार, 24 जून 2009

जब तुम थीं ......

जब तुम थीं तब लगता था सारा संसार खुशियों ,उमंगों से भरा था कहीं कोई कमी न थी हर तरफ प्यार ही प्यार ,सब हमारे थे कोई पराया न था लगता था सब जाने -पहचाने हैं ,अपने आप को बडा होशियार ,समझदार समझते थे लेकिन आपके जाने के बाद जाना कि hम कितने गलत थे ,कितने नादाँ थे .....जब तुम थीं तब नीद इतनी आती थी कि आपके बार -बार जगाने पर भी नही जगते थे जब आप डाटना शुरू करतीं तो हम सब चादरें तान कर और सुख की नीद सो जाते आपका डाटना इतना सुकून देता कि उसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है अभिव्यक्त नही किया जा सकता सबका समय पर कार्य हो यह आपकी जिम्मेदारी थी ,चाहे कोई उठे या न उठे अब हमें नीद नहीं आती ,आती भी है तो एसी कि जरा सी आहट से उचट जाती है मिन्नतें करते हैं कि नीद आजाये ,थोड़ा सुकून मिल जाए ,लेकिन एसा कुछ नहीं होता क्यों होता है एसा ?
जब तुम थीं तो तुम्हारे कपडों से ,बदन से ,वह खुशबु आती थी कि खाना खाने की तीव्र इच्छा होती थी आप मैं समाई खुशबु उत्प्रेरक का कार्य करती थी हर चीज कितनी स्वादिष्ट ,कितनी अच्छी कि आज भी वह स्वाद याद करते ही मुंह मैं पानी आजाता है लेकिन अब वे स्वादिष्ट व्यंजन कहीं नही मिलते ,न किसी रेस्टोरेंट मैं ,न किसी होटल मैं ,न किसी ढाबे पर कैसे बनाती थीं आप हमारा भोजन ?मुझे पता है उस भोजन मैं इतना प्यार ,इतना स्नेह ,इतना दुलार भरा होता था कि उसे अन्य किसी मसाले की आवश्यकता ही नही होती थी आज पता नही भोजन सुस्वाद और अच्छा क्यूँ नही बनता ?
तुम थी तो कभी अपने को असुरक्षित समझा ही नही ,आज आलम ये है कि अप आप को कहीं सुरक्षित महसूस नही करते जिम्मेदारियों का कभी एहसास ही नही हुआ ,जो कहा वह कर दिया उस पर भी दस बार कह लिया ,उसके बदले में कुछ न कुछ पाने की कामना की आज जिम्मेदारियों का पहाड़ सर पर उठाए फिरती हूँ जिसने जीना दूभर कर दिया है
तुम थी तो लडाई कितनी होती थी ?आप संभालते -संभालते परेशान हो जाती थी हम भाई -बहनों की लडाई से अब हम लड़ते नही ,बात भी ज्यादा नही करते एक -दुसरे को देख कर आँखे चुराते हैं ,बातों में उलाहना नही ,शिकायत नही ,सब कुछ शांत है यह शान्ति हमें अच्छी नही लगती तुम थी तो मान -मनुहार थी ,रूठना -मनाना था अब न कोई रूठता है न मनाता है ,उसे उसके हाल पर ही छोड़ दिया जाता है क्या हो गया है सबको ?कोई बताता क्यों नही ....?
जब आप थी तो हर बात आपको बताती थी एक -एक बात दौड़ -दौड़ कर बताने आती थी ,फ़िर बातें इकठ्ठी करके बताने लगी क्योंकि जल्दी मिलने का मौका ही नही मिलता था अब भी बहुत सी बातें मन में आती हैं ,इकठ्ठी भी करती हूँ लेकिन .......किसको बताऊं ,कौन सुनेगा .....कौन ध्यान देगा ,कौन समझाएगा ......शायद ये बातें अब यूँ ही रह जाएँगी मैं यूँ ही कहने को तडपती रह जाउंगी ............
तुम थी तो जीवन हरा -भरा था खुशियों का सागर था ,हर दिन नया दिन ,हर रात नयी रात थी अब इस सागर में लहरें नही ,मोटी नही ,उल्लास नही ,सब कुछ विलीन हो गया है
क्या ये सब कभी वापस मिलेगा ..............नही मिल सकता ........क्योंकि जननी तो जीवन में एक बार ही मिलती है उसे पाने के लिए पुनर्जन्म लेना होगा
समाप्त

गुरुवार, 11 जून 2009

निरंतर होता सरलीकरण शिक्षा का स्तर गिरा रहा है -विपक्ष

विपक्ष

"अभी तो सहर है ,जरा सुबह तो होने दो ,
अभी तो आगाज है ,अंजाम क्यों सोचने लगे "

दिन दिन शिक्षा का बदलता स्वरूप अपने साथ कई विवाद लेकर आता है आरक्षण का ,कभी परीक्षाओं का ,कभी भाषा का एसा ही एक विवाद हमारी आज की वादविवाद प्रतियोगिता का शीर्षक बन कर हमारे सम्मुख आया है कि निरंतर होता सरलीकरण शिक्षा का स्तर गिरा रहा है श्रोताओ ,मैं इस बात से कतई सहमत नही हूँ बदलाव तो नियति का नियम है ,फ़िर हर सदी में कोई न कोई बदलाव तो होता ही है लेकिन जिस बदलाव को समाज मान्यता दे ,जो सबके हित के लिए हो ,उसे नकारना क्यों ?

हर चीज के दो पहलू होते हैं मनुष्य की प्रवृति यही रही है कि वह गलत चीज को जल्दी ग्रहण करता है इसलिए आवश्यक है कि सही रुख को विस्तार से जाना जाए सरलीकरण से हमें अनेक लाभ हुए हैं -विद्यार्थियों की पढाई में रूचि बढ़ना जो विद्यार्थी शिक्षा जटिल होने के कारण शिक्षा से जी चुराते थे ,अब उनका पढाई में मन लगाने लगा है उनमें प्रतिस्पर्धा करने का उत्साह भी जागा है
पढना आसान होगया है ,यह जानकर ग्रामीण भी आगे आएँगे वे पढाई में अपनी रूचि दिखाएंगे ,जिससे साक्षरता का प्रचार भी बढेगा और आर्थिक क्षेत्र में उन्नति भी होगी सरलीकरण के अंतर्गत पाठ्यक्रम में अनेक सुधार किए गएजिससे विद्यार्थी को पढ़ने में सुविधा हुई उन पर पढाई बोझ न पडे जिससे वे उदासीन हो जाएँ उदासीनता के कारण कुछ विद्यार्थी अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं ,या पढाई छोड़ कर गलत रास्ते पर भटक कर अपना जीवन तथा अपने अभिभावकों की उम्मीदे दांव पर लगा देते हैं
यदि सरलीकरण न होता तो रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ संस्कृत में ही पढे जाते तो सबकी समझ में न आते कितने ही आयुर्वेदिक नुस्खों ,शास्त्रों से हम अपरिचित ही रह जाते
सरलीकरण से बेरोजगारी की समस्या भी कुछ हद तक हल होगी ७०% अंक लाने वाले विद्यार्थी ८०-९०%अंक से उत्तीर्ण होंगे और नौकरी के अवसर बढेंगे
आप ही बताईए सरलीकरण के इतने लाभ होने के बावजूद उसे नकारना कहाँ की समझदारी है ?क्यों कुछ लोग शिक्षा के स्तर का बहाना बना कर विद्यार्थियों पर मायूसी और परेशानियों का बोझ डालना चाहते हैं ?कुछ लोग नही चाहते कि आज का विद्यार्थी आत्म विश्वास के बल पर जिन्दगी में आगे बढे वे आज के युग में भी लकीर के फकीर बने बैठे हैं मेरे विपक्षी मित्र का कहना कि सरलीकरण से विद्यार्थी मेहनती नही रहे ,गलत है मित्र सरलीकरण तो एक डोर है जिसके सहारे विद्यार्थी जीवन में आगे बढ़ सकता है आज के इस तेज रफ्तार के युग में सरलीकरण विद्यार्थी के लिए वह मित्रोरेल है जिसके सहारे वह सरलता सुगमता ,से अपनी मंजिल प्राप्त कर सकता है
आज हमारा देश हर क्षेत्र में प्रगतिशील है फ़िर शिक्षा के क्षेत्र में क्यों पिछडे ?क्यों वही क से कमल पर अटके रहें ,क से कर्मयोगी भी होता है सच्चा कर्मयोगी वही होता है जो सरलीकरण को अपनी वैसाखी नही अपितु अपना नया हथियार बना कर कर्मक्षेत्र में विजय प्राप्त करे
सरलीकरण की इस नई नीति के साथ ही हम नए युग से जुड़ सकेंगे
"आज पुरानी जंजीरों को तोड़ चुके हैं
क्यों देखें उस मंजिल को जो छोड़ चुके हैं
नया दौर है ,नई उमंगे ,अब है नई कहानी
युग बदला ,बदलेगी नीति ,बदली रीति पुरानी
"
समाप्त

बुधवार, 10 जून 2009

बस्ते का बोझ बच्चों की उन्नति में बाधक या साधक

बाधक

"बार -बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया ,तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी "

बचपन भी कितना ?सिर्फ़ तीन -चार साल .....बस इधर स्कूल का बस्ता पीठ पर चड़ा और उधर बचपन खिसका .......क्यों हुआ मेरे साथ ऐसा .......?कभी सोचा है आपने .....माता -पिता ने .......अभिभावकों ने ....सरकार ने .......?किसी ने भी नही सोचा उन्हें तो एक पढा -लिखा नागरिक चाहिए यह देखने की उन्हें आवश्यकता ही नही कि भविष्य का नागरिक कैसे पढ़ रहा है ?......कैसे जी रहा है ? बचपन की नाजुक उम्र में ही मजदूर की तरह पीठ पर बस्ता लाद दिया और हांक दिया स्कूल की ओर जहाँ भेड़ बकरियों की तरह बच्चे कक्षा रुपी बाढे में भर दिए गए

और .............बच्चा रोता रहा ....रोता रहा .........छिन गए खिलौने ....छिन गया बचपन आगया बस्ता .......आ गयी किताबें ....और ढेर सारा पाठ्यक्रम कक्षा पांच और विषय दस ....२० किताबें और २० कॉपियां ,दस पाठ्य पुस्तकें ,दस अभ्यास पुस्तकें छोटी सी जान,छोटा सा शरीर ,भोला मस्तिष्क और भरी बस्ता

इस भारी बस्ते ने हमारा बचपन ही छीन लिया खेलने का वक्त नही मिलता ,शैतानियाँ करने के लिए भी समय का आभाव है जब कभी कक्षा में अध्यापिका के आने से पहले कुछ शरारत करते भी हैं तो उनके आते ही डाट खाते हैं पहले अनुशासन पर लेक्चर सुनते हैं फ़िर पाठ पर .....सब कुछ इतना घुलमिल जाता है कि न पाठ समझ आता है न अनुशासन

समय का महत्व सभी समझाते हैं -समय पर कार्य करो ,समय का सदुपयोग करो अब आप ही देखिये मेरी समय सारिणी -७.३० से १.३० तक स्कूल में अर्थात ६घन्ते स्कूल में ,३घन्ते स्कूल आने -जाने और तैयार होने के ४ घंटे स्कूल का होम वर्क अर्थात गृह कार्य के आधा घंटा मित्रों से बात करने के क्योंकि होमवर्क भूल जाता हूँ आधा घंटा टी.वी .देखने का ९घन्ता सोने के लिए अब आप ही बताईए कि मैं कब -खातापीता हूँ इस प्रतियोगिता के लिए भी बंक मार कर आया हूँ
कक्षा ५ तक तो सरकार की मेहरवानी से पास होता गया जब कक्षा ६ मेंआया तब होश ठिकाने आए कि मुझे तो कुछ भी नही आता इस बस्ते के बोझ ने न मुझे पढ़ने दिया न खेलने ही बस इसे लादे रहने की आदत हो गयी है इसके बिना मुझे अधूरापन लगता है यह मेरी पीठ का साथी बन गया है मझे नीद भी तभी आती है जब मम्मी पीठ पर वजन रखती है
एक बच्चे का सम्पूर्ण विकास तभी हो सकता है जब वह स्वच्छंद वातावरण में पले- bआढे बच्चे की पढाई के लिए आवश्यकता है प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण वातावरण की ,जहाँ पानी की कलकल सुने तो पक्षियों की चहचहाहट भी समझे ,जहाँ हवा की सरसराहट होऔर फूलों की महक हो ,बच्चों की खिलखिलाहट हो प्रकृति के नजदीक ही वह जीवन की पढाई पढे जिससे वह संसार और सृष्टि से परिचित हो ,उसकी सुन्दरता से रूबरू हो
आज के बोझिल वातावरण में ,प्रतियोगिताओं की होड़ में वह कही दब सा गया है आज बच्चे पर सिर्फ़ बस्ते का ही बोझ नही है ,उस पर माता -पिता की आकाँक्षाओं का बोझ भी है अभिभावकों के सामाजिक स्तर को बढाने का उत्तर दायित्व भी है इन सब को उसका बाल मन संभाल नही पाताऔर वह आगे बढ़ने की अपक्षा मौत को गले लगाना श्रेयकर समझने लगता ही
प्रतिदिन अख़बारों में दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों में इससे सम्बन्धित समाचार आते ही रहते हैं कहीं कोई बच्चा फेल होने पर ऊँची इमारतों से छलांग लगा देता है तो कोई पंखे से लटक जाता है कोई जहर खा लेता है तो कोई रेल की पटरियां नाप लेता है बच्चे का जीवन समाप्त हो जाता है माता -पिता जीते हुए भी मुर्दे के समान हो जाते हैं ,लेकिन शिक्षा नीति बनाने वालों के कानों पर जूं नहीं रेंगती इन हालातों पर न वे ध्यान देते हैं न सरकार
शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए बच्चे का चारित्रिक विकास करना जो आज किताबी बातें रह गईं हैं चारों ओर छाए भ्रष्टाचार बच्चे के जीवन को निराशा और हताशा से भर दिया है वह निश्चित ही नही कर पाता कि किस रास्ते पर चले
यह सच है कि वह किताबों के बोझ के चाबुक से वह अपना रास्ता जल्दी तै कर लेता है ,लेकिन हो सकता है कि वह मंजिल से पहले ही दम तोड़ दे इसलिए मैं अनुरोध करता हूँ कि इस ओर कुछ सार्थक कदम उठाए जांए जिससे बच्चे का चहुमुखी विकास हो वह सिर्फ़ ज्ञान की मशीन बन कर न रह जाए बस्ते के बोझ को आप ज्ञान की अधिकता समझने की भूल न करें -
मेरा शरीर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था ,तुम्हे धोखा हुआ होगा
"
समाप्त

बस्ते का बोझ बच्चों की उन्नति मैं साधक

साधक

'आने वाले सुंदर कल की तस्वीर हैं बच्चे ,
उज्ज्वल उन्नत देश की तकदीर हैं बच्चे '

जी हाँ ,आज के बच्चे कल का भविष्य हैं आज का बच्चा कल का नागरिक बनता है बच्चों की परवरिश ,उनका रहन -सहन उनकी शिक्षा का देश के भविष्य पर सीधा असर पड़ता है जैसे -जैसे युग बदल रहा है वैसे -वैसे बच्चों की परवरिश ,रहन -सहन और शिक्षा में भी परिवर्तन हो रहे हैं तख्ती से कंप्यूटर का युग आ गया है बच्चों की शिक्षा में भी बडोत्तरी हुई और शिक्षा का स्तर ऊँचा होता गया
जिस तरह समाज में आधुनिकता के साथ पुराने रीति -रिवाज कभी -कभी बीच में अंगडाइयां लेकर अपनी उपस्थिति जता देती हैं उसी तरह कुछ लोग आधुनिक शिक्षा को बोझ बता कर प्रगति में बाधक बन रहे हैं वास्तविकता तो यह है कि माता -पिता ,शिक्षक बच्चों को बस्ते के जिस रूप से अवगत करायेंगे ,वे उसे वही समझेंगे अब ये उनके उपर निर्भर है कि वे बस्ते को बोझ बनाते हैं या जिम्मेदारी ?बचपन ही वह पडाव होता है जहाँ से बच्चे के व्यक्तित्व और जीवन का स्वरूप आरम्भ होता है जब बच्चा अपनी किताबें बस्ते में डाल कर विद्यालय जाता है तो वह उसका बोझ नही अपितु उसमें उसके व्यक्तित्व की परछाईं ,उसके मां-बाप के सपनों को साकार करने का सामान ,समाज के प्रति जिम्मेदारी का सफर नामा होता है माता -पिता का यह सोचना कि बच्चा इतना भारीबस्ता कैसे उटाएगाअपने बच्चे को कमजोर बनाने की नीति है ,उनका लाड -प्यार ही उसकी प्रगति में बाधक बनता है यदि बच्चे को बस्ता भारी लगता है तो उसका समाधान भी है प्रति दिन प्रयोग होने वाली पुस्तकों विद्यालय में संग्रहित करके रखें इससे पुस्तकों का बोझ भी कम होगा और उनका रखरखाव भी टीक होगा
एक तरफ तो माता -पिता बच्चों को आधुनिक बनाने का प्रयत्न करते हैं ,फ़िर पढाई में आधुनिकता और बदावेका विरोध क्यों ? याद रखिए अधिक ज्ञान के लिए ज्ञान के स्रोत भी अधिक होंगे ,कम ज्ञान के स्रोत से बच्चे आगे कैसे बढ़ पाएंगे प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरुकुल में जाते थे शिक्षा के साथ -साथ उन्हें गृह कार्य भी सिखाए जाते थे जंगल से लकडी काटना ,पानी भरना आदि भगवान श्री कृष्ण और श्री राम ने भी ये कार्य किए थे इतिहास गवाह है कि वे महान पुरूष हुए लकडियों के गत्तर uताए तो संसार की विपदाएँ सर पर धर लीं ,पानी भरा तो संसार की विपदाओं को हर दिया
मेहनत का बोझ ही मनुष्य को सफल और महान बनता है बच्चे को बस्ते के बोझ से डराकर कमजोर नही बल्कि अपनी जिम्मेदारियों का एहसास कराकर कल का शिवाजी ,राणाप्रताप ,ऐ .पी .जी .अब्दुलकलाम बनाने का यत्न कीजिए हर पीडी अगली पीडी से यही कहती है -...
'हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के '
देश को आने वाले तूफानों से तभी बचाया जा सकता है जब हमारे बाजू और कंधे मजबूत हों उन पर विद्या धन बोझ नही बल्कि गांडीव हो

समाप्त

मंगलवार, 9 जून 2009

चापलूसी करो -आगे बढो- विपक्ष

विपक्ष

'उद्यमेन ही सिद्ध्यन्ते कार्याणि न मनोर्थे,
नहि प्रविशन्ति सुप्तस्य सिंह स्य मुखे मृगा '

जिस प्रकार बलशाली शेर के मुख में जानवर स्वयम नही घुसते ,उसे इसके लिए स्वयम प्रयत्न करना पड़ता है हम मनुष्य होकर स्वयं अपने बल पर कार्य न करके यदि चापलूसी का सहारा लेते हैं ,यह निश्चय ही शर्मनाक है सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आजतक मनुष्य ने जो भी विकास किया है ,वह सब उसके परिश्रम की देन है
आज विडम्बना यह है कि वह चापलूसी से पदौन्नति प्राप्त करके बहुत खुश है परन्तु याद रखिए यह खुशी थोड़े दिनों की मेहमान है एस प्रकार के लोग निंदा के पात्र बनते हैं वे अपनी नजरों में ही गिर जाते हैं उनका चरित्र ,व्यक्तित्व ,एवं बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है मृग त्रष्णा वश मनुष्य इसके चंगुल में फंसता ही जा रहा है कलियुग में चापलूसी ,माया की तरह व्याप्त है
चापलूसी ,भ्रष्टाचार की जननी है हमें ऐसे दलदल में धकेलती है ,जहाँ व्यक्तित्व ही नष्ट हो जाता है अपने फैसले हम स्वम नही ले सकते कार्य करने कीको खोकर हम परमुखापेक्षी बन जाते हैं अत:चापलूसी त्याग कर परिश्रम करें हम सिकन्दर महनत और लग्न से ही बन सकते हैं महानता प्राप्त होती है -संघर्ष ,आत्म -विश्वास और कतोर साधना से अपने स्वार्थ के लिए दुसरे का हक मत मरो ,चापलूसी करके धोखेबाज मत बनो ,गद्दार मत बनो
ऐ इंसान तू इतना खुदगर्ज न बन ,
उथ जाए परिश्रम और मेहनत से भरोसा ,
तू इतना मतलब परस्त न बन ,
मिल जाएंगी खाक में सारी हसरतें ,
अख्लाके इंसान की कद्र कर ,
ऐ इंसान तू इतना खुदगर्ज न बन '

कर्म की श्रेष्टता से ही भारत के सपूतों ने भारत का निर्माण किया है ,इसकी रक्षा करते हुए आगे बढ़ना चाहिए कृष्ण का कर्म लो ,गांधी का सद्भाव ,विनोबा का त्याग तभी जीवन सार्थक होगा ,सफल होगा ,अनुकरणीय होगा


समाप्त

चापलूसी करो आगे बढो- पक्ष

पक्ष
२१वी सदी में हर कोई एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में लगा रहता है हर कोई किसी भी तरह आगे बढ़ना चाहता है चाहे पैर पकड़ने पडें या gला ऊँचाई या वाहवाही किसे पसंद नही ,इसके लिए थोड़ी सी चापलूसी करने में हर्ज ही क्या है ? आज -कल मुंह में राम बगल में छुरी लिए कौन नही घूमता ?आज चापलूसी कौन नही करता ?हम सभी अपना काम निकलवाने के लिए थोड़ी सी चापलूसी तो करते ही हैं कोई नेताओं की चापलूसी करता है तो कोई अध्यापकों की कोई वकीलों की तो कोई अधिकारीयों की
आज कल चापलूसी बन्दूक से भी बढ़ कर हथियार है जो काम बन्दूक की नोक पर भी नही हो सकता वहचापलूसी क्षण भर में कर देती है प्रश्न उठता है कि आख़िर चापलूसी है क्या ?किसी भी व्यक्ति की इतनी झूठी प्रशंसा करना जिसका वह हकदार नही, चापलूसी कहलाता है चापलूसी में कोई तीर नहीं चलाने पड़ते बस इसके लिए हमारी जीभ रुपी तलवार ही काफी है जो सामने वाले के दिल को भेद देती है \और उसे हमारी बात ,मानने के लिए मजबूर कर दे यही चापलूसी का करिश्मा है
चापलूसी करने के फायदे भी बहुत हैं जहाँ रुपयों से काम हो ,वहाँ चापलूसी से ही काम बन जाता है कोई सिफारिश करवानी है तो चापलूसी से अच्छा नुस्खा नहीं कुछ नाम कमाना है तो आवश्यक है आज हमारे देश में चापलूसी का ही बोलवाला है आज के युग में मेहनत और योग्यता के साथ -साथ चापलूसी भी आवश्यक है सफलता की सीडी चढ़ने के लिए चापलूसी इसके इसके इसके सहारा है बिना इसके मेहनत और काविलियत पानी भरते नजर आते हैं
आज लोग अपने बौस को मस्का लगा कर खुश रखते हैं इसके लिए कुछ उपहारों का ,फलों का ,घर मैं बनी वस्तुओं का ,मिठाई का प्रयोग करना आवश्यक है कुछ और बातें भी याद रखनी जरूरी है ,जैसे -बौस का जन्म दिन ,शादी की सालगिरह ,उनकी पसंद -नापसंद ,बच्चों का जन्म दिन इनके अतिरिक्त तीज -त्योहारों पर उपहारों की सौगातों से वह मक्खन लगता है की आप भी उसकी चिकनाहट देख कर हैरान रह जाएँगे आपको यदि मेरी बात पर विश्वास न हो तो आजमा कर देख लीजिए मौज कीजिए और हमारी कॉम मैं शामिल हो जाईए










रविवार, 7 जून 2009

विद्यार्थी जीवन में राजनीति, छात्रों को पथ भ्रस्त कर देती है

विपक्ष
भला -बुरा न जग में कोई कहलाता है
भीतर का ही दोष ,बाहर नजर आता है ,
किसी को कीचड़ में कमल दिखाई देता है ,
किसी को चाँद में भी दाग नजर आता है
आज सम्पूर्ण विश्व लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा है क्योंकि लोकतंत्र ही किसी भी देश अथवा समाज की प्रगति के लिए नितांत आवश्यक है इसी से समाजवाद की स्थापना होती है लोकतंत्र की रक्षा के लिए अनेकानेक नेताओं ने कुर्वानी दी है चंद्रशेखर आजाद ,भगत सिंह ,सुख देव ,राजगुरु यहाँ तक कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने छात्र जीवन से ही राजनीति में रूचि लेनी आरम्भ कर दी थी राजनीति के गुन सीखने के लिए सिकंदर ने अरस्तु को ,चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य को अपना गुरु बनाया राजनीति के अनेक चतुर खिलाड़ियों ने संसार का नेतृत्व किया ,सही दिशा दी और मार्ग दर्शन किया

सरकार ने भी मतदान की उम्र २१ से घटा कर १८ कर दी छात्र जीवन में राजनीति का केवल वही विरोधी है जो लोकतंत्र के विरोधी हैं यदि छात्र जीवन से राजनीति न सीखी जाए तो राजनीति सीखने की सही उम्र क्या है ?राजनीति में पनपा भ्रष्टाचार भी इस बात का साक्ष्य है कि आज -कल राजनीति में कम लोग रूचि ले रहे हैं जो आगे चल कर बेहद खतरनाक हो सकता है

इसे रूचि कर बनाया जाए ,प्रतियोगी बनाया जाए ,अन्यथा विश्व लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा और राजतन्त्र अथवा तानाशाही से विश्व मंच पर हा -हा कार मच जाएगा कुछ लोग ही प्रगति शील ,अग्र्य्नीय और प्रेरक होंगे राजनीति और लोकतंत्र एक दुसरे के पूरक हैं देश प्रेम की भावना से ओत प्रोत अनुभव अथवा कुछ सीखने की भावना और कुछ कर गुजरने की यही सही उम्र है विश्व में इस बात के अनेक उदाहरन हैं कि छात्र जीवन राजनीति न सीखने वाले लोग नौसिखिए ही रहते है

वर्तमान समय को अभिशापित करने वाले लोग आतंकवाद ,भाई -भतीजावाद एवं समाज में पैदा होने वाली अनेक व्याधियों को जन्म देते हैं क्योंकि इन्होंने कभी भी नियमित कोई सीख ,ज्ञान ,अनुशासन और सहनशीलता सीखी ही नही

आज हमारे पास अच्छे डॉक्टर ,वैज्ञानिक ,प्रशासक उपलब्ध हैं ,कमी है तो केवल अच्छे नेताओं की जिनके आभाव में हमारा जनतंत्र खतरे में है आज राजनीति में स्वस्थ ,सुंदर ,शिष्ट आचरण की कमी है आए दिन संसद में होने वाले अशोभनीय आचरण हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि आज विद्यलों में अच्छे नेता बनाने का भी कोर्स शामिल किया जन चाहिए जिससे राष्ट्र को युवा ,होनहार ,प्रतिभाशाली और आदर्शमय कर्णधार मिल सके ,तभी राष्ट्र का भविष्य सुखमय और उज्ज्वल हो सकेगा कबीरदास ने कहा है _

" आचरी सब जग मिला ,विचारी मिला न कोय

कोटि आचरी बारिये ,जो एक विचारी होय "

समाप्त

शुक्रवार, 5 जून 2009

विद्यार्थी जीवन में राजनीति छात्रों को पथ भ्रष्ट कर देती है

पक्ष

'हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के ,
इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के '

ये पंक्तियाँ उन अमर शहीदों कीओर से कही गयी हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व बलिदान करके भारत को आजादी दिलाई उन्होंने सोचा था कि हम अपने देश वासियों को एक आजाद देश देकर जा रहे हैं आगे आने वाली पीडी इस देश को संभालेगी तथा दे श को उन्नति के रास्ते पर ले जायेगी

क्या सच में यही हो रहा है ?क्या हम वाकई उन शहीदों की भावना पर खरे उतरे हैं ?नहीं ..........आज समाज की हालत देख कर डर लगने लगता है आए दिन विभिन्न प्रकार के घोटाले -कभी चारा घोटाला ,कभी चीनी घोटाला ,कभी बोफोर्स घोटाला नित नए घोटालों ने राजनीति को भ्रष्टता की चरम सीमा तक पहुंचा दिया है नेताओं की मनमानी ने ,उनके लालच ने ,उनकी अंधी ताकतों के प्रभाव ने विद्यार्थियों को भी इस दलदल की ओर मृग त्रष्णा की भांति आकर्षित किया है विद्यार्थियों की नासमझी नेताओं के कम आतीं हैं वे अपना उल्लू सीधा करने के लिए छात्रों को भविष्य के सुनहरे सपने दिखा कर उनका दुरूपयोग करते हैं

कोलेजों में होने वाले इलेक्शन इस बात का प्रमाण है कि आज युवा वर्ग राजनीति पर लाखों रूपये खर्च करता है और करोडों बनता है सत्य तो यह है कि राजनीति के बहाने वह कूटनीति सीखता है कब ,कैसे ,किसे बलि का बकरा बनाया जाए ,सम्पति को कैसे हडपा जाए ,यही सब सीख कर वह अपनी बुद्धि और शक्ति का दुरूप योग करता है विद्यार्थी परिषद में चुने जाने पर उनका जीवन कुछ ही दिनों में बदल जाता है

चमचमाती गाडियां और बिना मेहनत के मिले रुपयों से जिन्दगी गलत राह पर चल पडती है चमचे छाप लोगों का साथ उन्हें दम्भी और अहंकारी बना देता है ये इलेक्शन उन्हें साम ,दाम ,दंड ,भेद सभी नीतियां सिखा देता है वे छात्र जीवन में ही गुंडा गर्दी में महारथ हासिल कर लेते हैं

सत्य तो यह है कि राजनीति का अर्थ मनमानी या शक्ति का प्रदर्शन नहीं है अपितु निस्वार्थ भावना ,निष्पक्ष विचार और न्याय का साथ देना है परन्तु अफ़सोस की बात है कि आज यही बातें असम्भव हो गईं हैं

महोदय ,आज छात्र जीवन शिक्षा हेतु होना चाहिए वे पहले स्वयं को योग्य बनाएं तब कार्य क्षेत्र में प्रवेश करें क्योंकि अधुरा ज्ञान अज्ञानता से भी भयानक होता है अंत में युवा मित्रों से यही कहना चाहूँगा कि अपने लक्ष्य को पहचानो ,राजनीति के लिए जीवन में और भी मौके मिलेंगे नेता बनो तो देश की भलाई के लिए न कि स्वार्थ के लिए एक पढा -लिखा
व्यक्ति ही एक स्वस्थ और उन्नत देश बना सकता है अत;विद्यार्थी जीवन का सदुपयोग करो और अपने जीवन को राजनैतिक प्रपंचों से पथ भ्रष्ट होने से बचाओ
बात है सीधी मतलब दो ,
समाप्त और समझाने दो
अभी कच्चा है मेरा रस्ता ,
इस पथ को और सजाने दो,
बदल दूंगा तस्वीर देश की ,
मुझे पढ़ कर आने दो


`