बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

प्रेरणा

शाम को थकी हारी मैं बालकनी में कपडे उठाने आई तो ठिठक कर रह गयी .सामने ही नई इमारत बन रही थी .कईदिनों से काम चल रहा था लेकिन मैं गर्मी की उमस एवंम आलस्य से बाहर ही नहीं निकली .आज अचानक एक नव योवना मजदूरिन के तेल से चमकते हुए काले बालों के बीच सिंदूरी मांग ने मुझे बरवश इंद्र धनुष के जेइशे आकर्षण से बाँध लिया .माथे पर चमकती लाल बिंदी और लाल सिंदूर ने उसे भरपूर सौभाग्य की गरिमा प्रदान की थी| मैं उसे देखती रही |वह दिन भर धूप में काम कर अब चमकते तंबियाबर्तन की आभा दे रही थी |सिर पर पानी की बाल्टी रखे वह थोडी ही देर में वापस आ गयी .में उसे निहारती रही ,जब वह दर्बानुमा अपने घर में चली गयी तो मैंने अपने आप को ड्रेसिंग टेबल के सामने पाया .गन्दा गुजला हुआ गौअन एवं बिखरे बाल ,नीरस एवं चिडचिडा चेहरा |मुझे अपने आप पर खीज आई |क्या मैं उस मजदूरिन से भी ज्यादा काम करती हूँ ? नहीं न !फ़िर भी मैं इसी स्थिति मेंक्यों हूँ ?झट पट बाथरूम की ओर भागी |नहा कर हल्का मेकअपकिया |पुनः जिज्ञासा मुझे बालकोनी में खीच लाई|लोहे की कडाईमें मसाले वाले आलू मुंह में चाट का स्वाद ले आए |फूली हुई गोल गोल रोटियां मुझे अपने आकारमें समां रहीं थीं |उस दिन मुझे घर का खाना अच्छा नहीं लगा |अपने आप पर ग्लानि होती जा रही थी किमैंखुश क्यों नहीं जबकि किसी चीज की कमी नहीं |अच्छा घर ,सुख सुविधाओं की आधुनिक सभी वस्तुएं -फ्रिज ,टीवी ,मिक्सी ,गेस कूलर क्या कुछ न था लेकिन मैं हूँ कि थोड़े ही काम से थक कर चूर हो जाती हूँ |चिडियों के चहचहाने के साथ ही उस नव योवना के आकर्षण ने मुझे पुनः बालकोनी मेंखडे होने के लिए मजबूर कर दिया |वह नहा कर आई थी धोती ऊँची -ऊँची बंधी थी|एक गीली धोती कंधे पर पडी थी कुछ और कपडे भी साथ में थे जो यह बता रहे थे कि वह सिर्फ़ नहाई ही नहीं कपडे भी धो चुकी है |में भी जल्दी -जल्दी काम निबटाने लगी |जब तैयार हो कर बाहर आई तो मजदूरों का समूह काम में व्यस्त हो चुका था |में भी शेष कार्य में व्यस्त हो गई|रोज़ की अपेक्षा आज काम जल्दी हो गया और में थोडी देर आराम से लेट भी ली |पता नहीं क्या आकर्षण था उस नव योवना में कि मैंउसके साथ अपने काम को ढालने लगी |वह उठती तो मैं उठती ,वह काम करती तो मैं भी काम करने की कोशिश करती और रात में जब उनके लोक गीतों का स्वर वातावरण में बिखर जाता तो में उनके स्वर में बंधी बालकोनी में खडी हो जाती |कभी फिल्मी गीत लोकधुनों पर बनते थे लेकिन इनके लोकगीत मैंने फिल्मी धुनों पर सुने |कभी अच्छा भी लगता लेकिन एक कसक सी उठती की कहीं फिल्मी गीतों का आकर्षण हमारे लोक -गीतों की गरिमा न चुरा लें |धीरे -धीरे मेरी दिन चर्या में बदलाव आने लगा |मेरी थकान कुछ -कुछ कम होने लगी क्योंकि कार्य में व्यवस्थित्ताआ गई थी |में खुश थी ,मुझसे ज्यादा मेरे पति और बच्चे खुश नजर आने लगे |एक -दो महीने के एसक्रम ने मुझे व्यवस्थित ढंग से कार्य करना सिखा दिया |एक दिन वह मजदूर -समुदाय वहाँ से चला गया |इधर -उधर फैला सामान उनके जीवन की अस्थिरता को व्यक्त कर रहा था |इस अस्थिर जीवन में भी वे कितने स्थिर व् सुव्यव्थित थे यह देख कर में हैरान थी |में उदास सी उधर देख रही थी की पति देव ने मुस्करा कर देखा और कहाकि कितनी सुंदर इमारत बनी है |में सोच रही थी कि इससे भी सुंदर इमारत तो वह है जो मेरे अंदर अनजाने ही बन गयी \कुछ लोग अनजाने ही कब ,कितना किसको प्रभावित कर सकते हैं यह कोई नहीं जनता क्योंकि इससे तो स्वयं प्रभावित करने वाला भी अनजान होता है \मेरे जीवन में इस अनजान मजदूरिन ने जो इमारत खडी की थी आज वही मेरी सफलता का राज है |वह मेरी प्रेरक थी उसने मेरी आलस्य भरी अव्यवस्थित जिन्दगी को जिन्दगी बना दिया |
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