जब भी कंप्यूटर सीखने की कोशिश करती हूँ कुछ न कुछ गडबड हो जाती ही और सारा प्लान धरा का धरा रह जाता है मेरी तो कुछ समझ में ही नही आता कि क्या करूं ?अब तो सीखने को भी मन नही करता लेकिन कभी सोचती हूँ कि एक बार कोशिश कर के और देखती हूँ उम्मीद तो कम है लेकिन प्रयास कर रही हूँ कभी तो यह बहुत अच्छा
लगता है और कभी दिमाग खराब कर देता है
शनिवार, 26 जून 2010
सोमवार, 7 जून 2010
bhopal..
aaj ke nyay ne nyay ko bhee sharmsar kr diya .25 varsh 5hajar logo k ee maut aur apradhiyon ko 2 2 varsh kee sja ?yh kaisa nyay hai?nyay ka mjak hai .peediyan khtm ho gyee !nirpradhiyon ko maut kee need sulane kee yh sja? yh sirf hmare bharat mhan main hee ho skta hai .kya un logo kee aankhon main jhank kr dekha hai?.....vhan dard .dukh nirsha kask ka jo aalm haikya vh dhikhaee nhee deta?ek bar soch kr dekhiye ydi aapka apna koee hota ....to kya yhee dand hota? aaj vh etihasiknyay huaa hai jise nyay khte hue bhee dil kanpta hai !dhny hai hmaree nyay prkriya aur dhany hai hmare nyayadheesh !hmare desh mai yhee hai aadmee kee keemt !pahle to use mrne ke lie chhod do yadi n mre to use tdpa tdpa kr mrne do..kyoki tb tk use shayta to mil hee nhee sktee ?bhagvan ne chaha to do ek sal main to mr hee jayega ydi n mra to yh dand sun kr to mr hee jayegaa .fdfdate hodhaur michmichatee aankhon ne aaj jo kha unhe shbdon main nhee kha ja skta .nyay main vilamb svyn anyay kee ghoshna krta hai us pr yh dand?khan jaae nirpradhee?kaun dilaega use nyay?.....yhan kee nyay vyvastha.....let-lteefee.....srkareetantra......ya nyayadheesh...jo sirf ek -dusre kee suvidhanusar kary krte hain .us smy kee trasdee ne sare desh ko hila kr rkh diya ...hilee nhee to sirf hmareevyvastha.... ydi janta virodh main n khdee ho to ......jaisikalall kee bat ho ya ruchika keebat ho......kesh to khatm ho hee chuka tha.fir se sunvaee huee aur apradiyon ko dand mila.....ab fir vhee hoga.....kya ab nyay prkriya apang ho gyee hai?kya hr bar ese dusron ka shara lekr hee aage bdhna pdega.....ydi esaa hee hai...to kya jroort hainyayalyon kee.....nyayadheeshon kee ....aur....etneentjar kee.....
बुधवार, 15 जुलाई 2009
लोक लाहु परलोक निबाहू
महान कवि ,भक्त ,समाज सुधारक गोस्वामी तुलसीदास की रचना "राम चरित मानस "के पढ़ने और सुनने से ही व्यक्ति उन भावनाओं के सागर में बहने लगता है जहाँ हर रस ,हर भावः ,हर संवेदना अपने उत्कृष्ट रूप में नजर आती है |कहीं वात्सल्य का उमड़ता सागर है तो कहीं श्रृंगार की मादकता ,कहीं त्याग और कर्तव्य की पराकाष्ठा है तो कहीं भक्ति में पूर्ण समर्पण है |कहीं भ्रातत्व प्रेम का उमड़ता अनुराग है तो कहीं समाज हित में उठाए कठोर व्रत हैं |कहीं युद्ध की विभीषिका है तो उसी युद्ध में संस्कारों की मर्यादा भी है |
मर्यादा का वह रूप जिसकी तुलना अन्यत्र दुर्लभ ही नहीं असंभव है |कहा गया है आपत्ति काले मर्यादा न अस्ति "लेकिन राम चरित मानस वह ग्रन्थ है जिसमें आपत्तियों में ,विषम परिस्थितियों में ,भी मर्यादाएं यथा स्थान हैं |वहां कहीं कमी नहीं आई है बल्कि मर्यादाओं का सर्वोत्तम रूप उभर कर सामने आया है |इस ग्रन्थ ने अवतारी को भी मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया |
जहाँ कहीं आज भी राम महिमा का स्मरण होता है ,बखान होता है ,,अखंड -पाठ होता है तो वह माहौल बनता है कि कलियुगी स्त्री -पुरूष जीते जी कुछ क्षणों के लिए ही सही उस स्वर्ग का आनंद महसूस करते हैं जिसका वर्णन सहज सम्भव नहीं |श्रृद्धा ,प्रेम ,भक्ति ,विश्वास ,आस्था की वैतरणी में दुबकी लगा लगा कर परम आनंद को प्राप्त करते हैं |तुलसीदास ने आधुनिक काल में लोगों के लिए स्वर्ग के आनंद का सम्पूर्ण प्रावधान कर दिया है |ढोलक ,मंजीरे ,करताल के साथ जब मानस का पाठ होता है तो श्रवण करनेवाला उस काल की अयोध्या में पहुँच ईश्वर का दर्शन लाभ प्राप्त करता है |वात्सल्य ,करुना ,दया ,ममता आदि की भावनाएं तरंगित होती हैं जो श्रोताओं को अपने आगोश में समा लेती हैं |
कार्य -क्रम की समाप्ति पर श्रद्धालु जब प्रसाद ग्रहण कर लेते हैं और पुन :कलियुग में लौट आते हैं तो तुलसीदास की भक्ति भावना से कही गयी बात _
"सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू
लोक लाहु परलोक निबाहू "
का वह रूप देखने को मिलता है ,जिसकी कल्पना उन्होंने स्वपन में भी नहीं की होगी |श्रद्धालुओं द्वारा चढाया गया चढावा सबकी स्वार्थ द्रष्टि का केन्द्र होता है |जिन पंडितों ने राम कथा का परम आनंद प्रदान किया था ,वे इस आर्थिक आनंद पर टूट पड़ते हैं |आपस में लड़ते हैं ,अपने अपने हक़ का बखान करते हैं ,अपशब्दों का खुला प्रदर्शन करते हैं जिस पर सहज विशवास नही होता |
सोमवार, 6 जुलाई 2009
सोमवार, 29 जून 2009
नियति
नियति
मैं नियति हूँ आप मुझे जानकर भी नही जानते इसलिए अपना परिचय देना आवश्यक है यथार्थ यह है कि कुछ को हम जानने के इच्छुक रहते हैं और किसी को जानकर भी नही जानना चाहते मैं उन्ही में से हूँ विडम्बना तो यह है कि मुझे हर बार ,हर युग में अचीन्हा गया ,लेकिन मैंने अपना अस्तित्व किसी न किसी रूप में बनाए ही रखासृष्टि के प्रारम्भ में मेरे अस्तित्व के बिना सृष्टि अधूरी थी हर तरफ नीरसता थी ,आलस्य था कोई आकर्षण न था ईश्वर ने मुझे बना कर सृष्टि के क्रम को आगे बढाया आदिकाल में श्रद्धा के रूप में मैंने त्याग ,बलिदान ,सहिष्णुता ,सहनशीलता ,प्रेम दया और ममता के भावों से सभी का परिचय कराया लेकिन आदि पुरूष मनु ने मुझे उस काल में भी अपने स्वार्थ की पूर्ति कर उपेक्षित किया ,मेरा तिरस्कार किया लेकिन मेरे अस्तित्व को मिटा न सका थक हार कर ,निराश हो कर वह मेरी ही शरण में आया मैंने उसे माफ़ कर खुले दिल से अपनाया ,मेरी इस सहृदयता को युग ने मुर्खता समझा ,उसका महत्तव न समझा अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए हमारी भवनों से खेलते रहे और धोखा दे कर हृदय हीन बनाने की कोशिश करते रहे लेकिन मैंने अपनी ममता ,स्नेह और मानवीय भावनाओं का स्रोत न सूखने दिया
सतयुग में सत्य के कारन अंहकार और स्वार्थ को स्थान न मिला इसलिए उस युग में सत्य के साथ मिलकर सर्व भुत हो गयी जैसे -जैसे काल चक्र आगे बढ़ता गया वैसे -वैसे मनुष्य अधिक स्वार्थी ,लालची .अहंकारी और शक्ति शाली होता गया जब शक्ति और सत्ता किसी के पास होती है तो वह कब अत्याचारी हो जाता है पता ही नही चलता यह शायद वह स्वं भी नही जान पता लेकिन अपनी शक्ति का प्रयोग करना वह कभी नही भूलता
त्रेतायुग में मुझे निरपराधी होने पर भी कभी सीता के रूप में अग्नि -परीक्षा देनी पडी ,कभी सुलोचना के रूप में सती होना पडा हार युग में हार परिक्षा में सफल होती रही क्योंकि इसका आधार त्याग और बलिदान रहा स्वार्थ नही रहा इसलिए विपरीत स्थिति में भी विजयश्री ने अपना बहुमूल्य हार मुझे ही पहनाया।
काल चक्र की गति के साथ साथ मेरी गति भी बदलती गयी द्वापर युग जिसे क्रिशनयुग कहना ही उपयुक्त होगा में ,यग्यसेनी छली गयी ,अपमानित की गयी यहाँ तक स्त्री जाती की मर्यादा को भी छन्न भिन्न किया गया यशस्वी पंच - पतियों के सामने मैं , द्रोपदी लाचार और अपमानित हुई इसका अनुम्मान यह काल भी नही लगा सकता इतिहास ने तो कुछ साक्ष्य ही दिखाए हैं उसने उस वेदना को ,उस आत्म ग्लानी को नही देखा न भुगता उसे मैंने भुगता है उसे मैंने तिल -तिल जिया है और जीने में न जाने कितनी बार मरी हूँ हर मौत और भी भयानक और भी क्रूर होती गयी इस अपमान ने ,इस टीसन ने ,इस वेदना ने मुझे इतना जलाया की यह जलन हिमालय की श्रंखलाओं के बीच हिम आक्षादित होकर भी शांत नही हुई क्या तुम्हे बर्फ से उठता हुआ धुंआ दिखाई नही देता ?देता है ....न ये मेरी आहें हैं ,ये मेरी पीड़ा है जो आज भी धधक रही है कुछ गलतियाँ क्षम्य होती हैं तो कुछ चाह कर भी इस परिधि में नही आती
इतना सब होने के बाद भी मैं हारी नही ,टूटी नही ,बिखरी नही ,मैं अस्तित्वहीन न हुई ,क्योंकि मेरा एक रूप था ,एक आकार था ,एक व्यक्तित्व था इसलिए अस्तित्ववान बनी रही
काल रथ का पहिया अब उस जगह आकर स्थिर हो गया है ,जहाँ कर्ण की मौत सुनिश्चित है एक सत्य की मौत ,एक विश्वाश की मौत यह काल चक्र कलियुग में आकर थम गया है अंहकार ,स्वार्थ ,लोभ ,काम ने इस काल को अपने आगोश में लेलिया है परिणाम .......स्पष्ट है कलीयुगी पुरूष ने अपनी ही सहचरी को ,अपनी ही शक्ति को ,अपनी ही प्रेरणा को शक्तिहीन करने का बीडा उठा लिया है अंहकार और शक्ति के मद ने उसे कामांध ही नही एसा अँधा बना दिया है जो अपने भले -बुरे को भी नही पहचान सकता
क्रूरता अपनी चरम सीमा पर है दया ममता ,कर्तव्य ,सच्चाई और ईमानदारी ने किनारा कर लिया है काली स्थान में अब सिर्फ़ शैतान का घर है इसने पढे -लिखे ,समझदार व्यक्ति को विज्ञान के उन अनुसंधानों की ओर धकेल दिया है जहाँ वह ईश्वर की सृष्टि में भी दखलंदाजी करने लगा है विज्ञानं ने गर्भस्थ शिशु के बारे में सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करा दी है जिससे पुरूष ने अपनी इच्छा को स्त्री पर लाड दिया है कभी वह स्वयं बेटा चाहता है तो कभी इस चाहत में माता और बहन को भी शामिल कर लेता है और भ्रूण हत्या जैसे अपराध में प्रवृत्त हो जाता है
इस कृत्य ने आज संसार को उस मोड़ पर लाकर खडा कर दिया है जहाँ से सृष्टि के रास्ते भी बंद हो जाते है न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी सदियों से कभी गला दबा कर ,कभी जहर देकर जो कन्याओं की ह्त्या की जाती थी आज वे निर्भीक तौर पर इसे की जाती हैं की न उन्हें कफ़न नसीव होता है न अंत्येष्टि आज उनकी अंत्येष्टि छोटे -छोटे टुकडों में काट कर नाली में बहा कर की जाती है कोई रोता नही ,बिलखता नही ,तडपता नही ,सब कुछ योजना बद्ध तरीके से होता है
पहले बालिका को जन्म लेने के बाद मारा जाता था आज उससे कोख में पलने का सुख भी छीन लिया उसकी जन्म दात्री जो सब पर ममता लुटाती है इसे मानव रुपी दानवों के दबाव से नही बचा पाती
पहले तो मैं सामना कर लेती थी ,जूझ लेती थी ,हरा देती थी ,झुकने को मजबूर कर देती थी क्योंकि उस समय मेरा रूप था आकार था बिना रूप और आकार के मैं कैसे लडूंगी ?अब तो मानव को मुझे इस जमीन पर लाने मेंभी हिचकिचाहट होने लगी है
याद रखिए बिना बाती के दीपक निष्प्राण एवं निरर्थक होता है उसे अस्तित्व में लाने के लिए बाती के अस्तित्व को स्वीकारना होगा अन्यथा वह दृष्टिहीन आखों की तरह व्यर्थ होगा मनुष्य मेरी नियति को बदलने की लाख कोशिश करले ,वह मुझे मिटा नही पायेगा उसे फ़िर मेरे पास आना ही होगा मैं भी बहुत जिद्दी हूँ ,हटीहूँ जिस तरह हर युग में अपने आप को बनाए रखने में समर्थ रही हूँ उसे कलियुग में भी मेरे अस्तित्व को स्वीकारना पडेगा मैं हार नही मानूगी हर बार नई कोख की तलाश में रहूंगी तुम मुझे मिटाते रहो मैं फ़िर आउंगी ..........मैं फ़िर जन्म लूंगी ...........मैं फ़िर जन्म लूंगी।
शनिवार, 27 जून 2009
मिलही न जगत सहोदर भ्राता
जीवन में स्मृतियों का जितना महत्व होता है उतना ही बचपन में घटित घटनाओं का ,जो हमें याद तो नही होती लेकिन माता -पिता और पारिवारिक जनों से इतनी सूनी होती हैं की वे अनुभूतियाँ बन जाती हैं इसी ही एक घटना मुझे बार -बार गुदगुदाती है और प्रेम से सराबोर कर जाती है
मां बताती थी कि जब मैं करीव एक साल की थी तब मां को किसी काम से थोड़ी देर के लिए बाहर जाना पडा वे मुझे भाई के साथ ,जो मुझसे मात्र चार साल बड़ा था ,छोड़ कर चली गयी और दरवाजा बंद कर गयी जाते -जाते मुझे कुछ खाने को दे गयी जल्दी में सीडियों का दरवाजा बंद करना भूल गयी उन्ही सीडियों से एक मोटा बन्दर नीचे आ गया वह भी मेरे साथ खाने लगा पास खेलते भाई ने जब देखा तो मुझे नन्ही बाँहों में भर लिया और जोर -जोर से रोने लगा मां ने आवाज सूनी तो दौड़ती हुई आई उन्हें देख कर बन्दर खाने का सामान लेकर भाग गया लेकिन मेरा अग्रज अभी भी मुझे छाती से चिपकाए दहाडें मार रहा था
मां ने चुप कराते हुए कहा -
"बन्दर भाग गया ,अब क्यों रो रहा है ?
"लली को बन्दर खा जाता तो ?
और ......तुझे खा जाता तो ......?
वह नन्हा बालक विस्फारित नेत्रों से देखता ही रह गया ,बहन के स्नेह ने अपने बारे में कुछ सोचने ही कहाँ दिया था यह तो बचपन की भाई है ,वह आज भी एसा ही है
याद आती है मुझे एक घटना ,जब मैं लगभग नौ साल की होउंगी पन्द्रह अगस्त के कार्य -क्रम में दौड़ में मैंने भी भाग लिया था मैं उस दौड़ में द्वितीय स्थान पर रही मुझे एक सुंदर सा डिब्बा मिलाथा उस समय मैंने अपने भाई की ग्रीवा में जो गर्व देखा था उसे शब्दों में बांधना मेरे लिए सम्भव नही
मैं किसी भी कार्य -क्रम में भाग लेती चाहे वह स्कूल का हो बाहर का भइया के निर्देशन में ही होता एक बार मुझे जन्म-अष्टमी पर नृत्य प्रस्तुत करना था मैं भइया से पहले चली गयी नृत्य के बाद मैंने घर वालों को ढूंडा ,वे मुझे दिखे नही ,जबकि वे मुझे ही ढूंड रहे थे मैंने वगैर इंतजार किए घर का रास्ता पकडा भयंकर वारिश हो रही थी ,पता नही कैसे मैं अकेली घर पहुँच गयी दरवाजा बंद था ,मैं वहीं बैठ कर रोने लगी थोड़ी देर में देखा कि मेरा भाई छाता लिए मुझे देखने आ रहा था हर मुसीबत में जब भी सहारा चाहा वह मुझे पास ही मिला
जब हम लोग पढ़ते थे ,उस समय फ़िल्म देखने या बाहर घुमने की अनुमति मिलना उतना ही मुश्किल था जितना इमरजेंसी में छुट्टी मिलना लेकिन मेरा चतुर भाई किसी न किसी तरह यह कार्य कर ही लेता और सहभागिनी बनती मैं मां को अपनी ढाल बना हम यह काम कर ही डालते
पिता के स्वर्गारोहण के बाद हमने अपने छोटे भाई का विवाह किया काफी मेहमान आ गये थे ,सभी पीछे के आँगन में बांते कर रहे थे सर्दियों के दिन थे ,मैं करीब ग्यारह बजे पहुँची बच्चे कार से उतरते ही नानी के पास दौड़ गए मैं भी अन्दर चली ...द्रौईंग रूम के पास वाले कमरे में पिताजी का चित्र देख कर मैं उधर मुड़ gई उसके सामने खडी हुई कि भरा दिल उमड़ पड़ा दृष्टि धुंधली हो गयी ,शुभ अवसर पर आंसूं न बहाने का संकल्प बिखर गया मैं आंसुओं को रोकने की असफल चेष्टा कर रही थी कि मैंने अपने सर पर स्पर्श महसूस किया मुड़ कर देखा ,मौन खड़े भइया मेरा सर सहला रहे थे आंखों मेंआंसू थे लेकिन मुझे सर हिला कर रोने से रोक रहे थे आंसू पोंछ में पिता तुल्य भाई के पीछे चल पडी यत्न से छुपाए आंसू आंखों पर अपनी छाप छोड़ गये सबने देखते ही पूछा -
"रो रही थी क्या ?'
भइया ने कहा -
"ससुराल में मजे करके आयी है ,यहाँ काम करना पडेगा ..........रोयेगी नही क्या ..........?
सारे हंस पड़े ,में और भैया भी इसमें शामिल हो गये
जीवन के उतार -चढाव को मेरे भाई ने बहुत भोग है बीस वर्ष तक एक ही टी एस्टेट में शानदार नौकरी की ,लेकिन समय और भावः को कोई नही जान पाया है किसी की कमियों का खामियाजा कब ,कौन भुगतेगा कोई नही जानता नौकरी छोड़ दी ..........और दुसरी के लिए प्रयत्न जारी रहे ..........कभी मिली ....कभी छोडी ......फ़िर मिली ....फ़िर छोडी का क्रम चलता रहा लेकिन उन्हें कभी हताश और निराश नही देखा जिन लोगों ने धोखा दिया उन्ही की सहायता की
अदम्य साहस ,धैर्य ,शक्ति ,हिम्मत और सूझ -बुझ का उन्होंने परिचय दिया बच्चों की पढाई हो या परिवार की कोई जिम्मेदारी हो हमेशा ही उन्होंने पूर्ण सहयोग दिया
हमेशा पढ़ती और सुनती आई हूँ कि जो व्यक्ति सुख -दुःख को ,मान अपमान को समान भावः से ग्रहण करता है ,वह संत पुरूष होता है
मुझे इसे ही भाई की भगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त है
मां बताती थी कि जब मैं करीव एक साल की थी तब मां को किसी काम से थोड़ी देर के लिए बाहर जाना पडा वे मुझे भाई के साथ ,जो मुझसे मात्र चार साल बड़ा था ,छोड़ कर चली गयी और दरवाजा बंद कर गयी जाते -जाते मुझे कुछ खाने को दे गयी जल्दी में सीडियों का दरवाजा बंद करना भूल गयी उन्ही सीडियों से एक मोटा बन्दर नीचे आ गया वह भी मेरे साथ खाने लगा पास खेलते भाई ने जब देखा तो मुझे नन्ही बाँहों में भर लिया और जोर -जोर से रोने लगा मां ने आवाज सूनी तो दौड़ती हुई आई उन्हें देख कर बन्दर खाने का सामान लेकर भाग गया लेकिन मेरा अग्रज अभी भी मुझे छाती से चिपकाए दहाडें मार रहा था
मां ने चुप कराते हुए कहा -
"बन्दर भाग गया ,अब क्यों रो रहा है ?
"लली को बन्दर खा जाता तो ?
और ......तुझे खा जाता तो ......?
वह नन्हा बालक विस्फारित नेत्रों से देखता ही रह गया ,बहन के स्नेह ने अपने बारे में कुछ सोचने ही कहाँ दिया था यह तो बचपन की भाई है ,वह आज भी एसा ही है
याद आती है मुझे एक घटना ,जब मैं लगभग नौ साल की होउंगी पन्द्रह अगस्त के कार्य -क्रम में दौड़ में मैंने भी भाग लिया था मैं उस दौड़ में द्वितीय स्थान पर रही मुझे एक सुंदर सा डिब्बा मिलाथा उस समय मैंने अपने भाई की ग्रीवा में जो गर्व देखा था उसे शब्दों में बांधना मेरे लिए सम्भव नही
मैं किसी भी कार्य -क्रम में भाग लेती चाहे वह स्कूल का हो बाहर का भइया के निर्देशन में ही होता एक बार मुझे जन्म-अष्टमी पर नृत्य प्रस्तुत करना था मैं भइया से पहले चली गयी नृत्य के बाद मैंने घर वालों को ढूंडा ,वे मुझे दिखे नही ,जबकि वे मुझे ही ढूंड रहे थे मैंने वगैर इंतजार किए घर का रास्ता पकडा भयंकर वारिश हो रही थी ,पता नही कैसे मैं अकेली घर पहुँच गयी दरवाजा बंद था ,मैं वहीं बैठ कर रोने लगी थोड़ी देर में देखा कि मेरा भाई छाता लिए मुझे देखने आ रहा था हर मुसीबत में जब भी सहारा चाहा वह मुझे पास ही मिला
जब हम लोग पढ़ते थे ,उस समय फ़िल्म देखने या बाहर घुमने की अनुमति मिलना उतना ही मुश्किल था जितना इमरजेंसी में छुट्टी मिलना लेकिन मेरा चतुर भाई किसी न किसी तरह यह कार्य कर ही लेता और सहभागिनी बनती मैं मां को अपनी ढाल बना हम यह काम कर ही डालते
पिता के स्वर्गारोहण के बाद हमने अपने छोटे भाई का विवाह किया काफी मेहमान आ गये थे ,सभी पीछे के आँगन में बांते कर रहे थे सर्दियों के दिन थे ,मैं करीब ग्यारह बजे पहुँची बच्चे कार से उतरते ही नानी के पास दौड़ गए मैं भी अन्दर चली ...द्रौईंग रूम के पास वाले कमरे में पिताजी का चित्र देख कर मैं उधर मुड़ gई उसके सामने खडी हुई कि भरा दिल उमड़ पड़ा दृष्टि धुंधली हो गयी ,शुभ अवसर पर आंसूं न बहाने का संकल्प बिखर गया मैं आंसुओं को रोकने की असफल चेष्टा कर रही थी कि मैंने अपने सर पर स्पर्श महसूस किया मुड़ कर देखा ,मौन खड़े भइया मेरा सर सहला रहे थे आंखों मेंआंसू थे लेकिन मुझे सर हिला कर रोने से रोक रहे थे आंसू पोंछ में पिता तुल्य भाई के पीछे चल पडी यत्न से छुपाए आंसू आंखों पर अपनी छाप छोड़ गये सबने देखते ही पूछा -
"रो रही थी क्या ?'
भइया ने कहा -
"ससुराल में मजे करके आयी है ,यहाँ काम करना पडेगा ..........रोयेगी नही क्या ..........?
सारे हंस पड़े ,में और भैया भी इसमें शामिल हो गये
जीवन के उतार -चढाव को मेरे भाई ने बहुत भोग है बीस वर्ष तक एक ही टी एस्टेट में शानदार नौकरी की ,लेकिन समय और भावः को कोई नही जान पाया है किसी की कमियों का खामियाजा कब ,कौन भुगतेगा कोई नही जानता नौकरी छोड़ दी ..........और दुसरी के लिए प्रयत्न जारी रहे ..........कभी मिली ....कभी छोडी ......फ़िर मिली ....फ़िर छोडी का क्रम चलता रहा लेकिन उन्हें कभी हताश और निराश नही देखा जिन लोगों ने धोखा दिया उन्ही की सहायता की
अदम्य साहस ,धैर्य ,शक्ति ,हिम्मत और सूझ -बुझ का उन्होंने परिचय दिया बच्चों की पढाई हो या परिवार की कोई जिम्मेदारी हो हमेशा ही उन्होंने पूर्ण सहयोग दिया
हमेशा पढ़ती और सुनती आई हूँ कि जो व्यक्ति सुख -दुःख को ,मान अपमान को समान भावः से ग्रहण करता है ,वह संत पुरूष होता है
मुझे इसे ही भाई की भगिनी होने का सौभाग्य प्राप्त है
शुक्रवार, 26 जून 2009
बदला
बदला .......बदला ..................बदला ..............कितना उन्माद और अविवेक से लिया गया निर्णय होता है इसको बढावा देते हैं अपमान की भावना ,ईर्ष्या ,द्वेष और नीचा दिखाने की प्रवृत्ति जितनी यह भावना प्रबल होती है बदला भी उतना भयानक ,गम्भीर और दर्दनाक होता है इतिहास गवाह है कि बदले से कभी भी आत्म -संतुष्टि या कल्याण नही होता इससे होता है विनाश ......और सिर्फ़ विनाश बदले की भावना से किए गए कार्य आज तक किसी के लिए भी हितकर नही हुए ,न उस व्यक्ति के लिए जो बदला लेता है और न उस व्यक्ति के लिए जो बदले का पात्र बनता है
व्यक्ति को यह भ्रम होता है कि वह बदला लेकर ही चैन की नीद सोएगा पर हकीकत यह है कि वह बदला लेकर और भी बेचैन हो जाता है कभी कानून से बचने के लिए परेशान तो कभी आत्म -अपराध से परेशान चैन कहीं नही यदि कानून की पकड़ मैंआ गए और दंड पा गए तो ठीक अन्यथा आत्म ग्लानी मैं तिल -तिल कर जलना पड़ता है और जीवन घोर नर्क बन जाता है
बदला लेने वाला व्यक्ति जितना शक्ति शाली और सामर्थ्य वाला होता है बदला भी उतना ही विनाशकारी होता है प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल होती है कि यह जन्म -जन्मान्तर तक भी पीछा नही छोड़ती लेकिन एक बात निश्चित है ,प्रामादित है कि बदला और विनाश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं महाभारत का युद्घ द्रौपदी के अपमान का बदला था ,युवराज दुर्योधन के अपमान का बदला था समस्त कौरवों के साथ -साथ ग्यारह अक्शौहिदी सेना भी इसके विनाश मैं समाहित हो गयी
अम्बा ने अपना बदला भीष्म से पुनर्जन्म लेकर लिया शिखंडी के रूप मैं उसने किसका भला किया ?न अपना ,न परिवार का ?भीष्म के विनाश का आदि बना शिखंडी और स्वयम भी इस युद्घ की विभीषिका मैं समां गया
आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक आए दिन लोग इसकी आग मैं जल रहे हैं कही बदला लेने के लिए मित्र ,मित्र को मार रहा है ,भाई -भाई को मार रहा है ,पति पत्नी को मौत की नीद सुला रहा है तो पत्नी भी पीछे नही है साम ,दाम दंड ,भेद कोई इसी नीति नही है जिसका प्रयोग इसके लिए न किया जा रहा हो छल से ,बल से ,तकनीकी से ,धन से हर तरीके से मनुष्य बदला लेने मैं लगा है ,फ़िर चाहे वह स्वयं ही उसमें भस्म क्यों न हो जाए
सिर्फ़ शक्ति ही बदले की भावना को प्रबल नही करती बल्कि कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी बदले लेने के विभिन्न तरीके दुंद लेते हैं अभी हाल मैं घटित घटना ने तो हिला कर रख दिया हिजडों के एक समूह ने बच्चे के जन्म पर बच्चे के पिता से हैसियत से ज्यादा मांग की इस पर दोनों मैं कहा -सूनी हो गयी हिजडों ने उस अपमान का बदला उस मासूम बच्चे के पिता को नामर्द बना कर लिया और उसे भी नाचने -गाने के लिए मजबूर कर दिया मृत्यु दंड भी इसे अपराधियों के लिए कम है
बदला लेना और बदला चुकाना ,दोनों विपरीत शब्द हैं जहां एक का भाव ईर्ष्या ,द्वेष ,जलन ,घृणा से पूर्ण होता है ,वही दूसरा कृतज्ञता व् एहसान के भाव को दर्शाता है बदला लेना व्यक्ति के अपराध भावःऔर विचारों की संकीर्णता को दिखलाता है ,वही बदला चुकाना व्यक्ति के सहृदय ,विशाल दृष्टि कोण और सज्जनता का प्रतीक है बदला लेने से शत्रुता बदती है तो बदला चुकाने से प्यार कहीं -कहीं बदला चुकाने को बदला लेने के अर्थ मैं भी प्रयोग किया जाता है वहां बदला लेने की भावना उस सीमा से गुजर जाती है जहां इंसानियत बाकी होती है तभी बदला लेने को बदला चुकाना मान लिया जाता है
कैसे बचा जाए इस विनाशकारी प्रश्न से ?उत्तर एक और ............सिर्फ़ एक है -क्षमा .........
क्षमा वह भावः है जो बदले की उफनती भावना को शीतलता प्रदान करता है सहृदयता और मानवता की भावना फैलाता है मन के अन्दर व्याप्त जहर की तासीर को कम करता है हिंसा का प्रत्युत्तर अहिंसा ही है ,यदि हिंसा ही रहा तो यह आग बढ़ती ही जाएगी यदि कहीं सुकून मिल सकता है तो सिर्फ़ क्षमा से ,सहृदयता से प्यार से ,अपनेपन से
क्षमा करने से व्यक्ति का क्रोध कम होता है ,मन को शान्ति मिलती है ,मानवता की भावना का प्रसार होता है बदला वह है जो बदल दे चाहे वह भावना हो या कार्य
क्षमा करो ,सृजन करो ,कल्याण करो ,भला करो तभी यह बदले की भावना मिट सकेगी
समाप्त
व्यक्ति को यह भ्रम होता है कि वह बदला लेकर ही चैन की नीद सोएगा पर हकीकत यह है कि वह बदला लेकर और भी बेचैन हो जाता है कभी कानून से बचने के लिए परेशान तो कभी आत्म -अपराध से परेशान चैन कहीं नही यदि कानून की पकड़ मैंआ गए और दंड पा गए तो ठीक अन्यथा आत्म ग्लानी मैं तिल -तिल कर जलना पड़ता है और जीवन घोर नर्क बन जाता है
बदला लेने वाला व्यक्ति जितना शक्ति शाली और सामर्थ्य वाला होता है बदला भी उतना ही विनाशकारी होता है प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल होती है कि यह जन्म -जन्मान्तर तक भी पीछा नही छोड़ती लेकिन एक बात निश्चित है ,प्रामादित है कि बदला और विनाश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं महाभारत का युद्घ द्रौपदी के अपमान का बदला था ,युवराज दुर्योधन के अपमान का बदला था समस्त कौरवों के साथ -साथ ग्यारह अक्शौहिदी सेना भी इसके विनाश मैं समाहित हो गयी
अम्बा ने अपना बदला भीष्म से पुनर्जन्म लेकर लिया शिखंडी के रूप मैं उसने किसका भला किया ?न अपना ,न परिवार का ?भीष्म के विनाश का आदि बना शिखंडी और स्वयम भी इस युद्घ की विभीषिका मैं समां गया
आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक आए दिन लोग इसकी आग मैं जल रहे हैं कही बदला लेने के लिए मित्र ,मित्र को मार रहा है ,भाई -भाई को मार रहा है ,पति पत्नी को मौत की नीद सुला रहा है तो पत्नी भी पीछे नही है साम ,दाम दंड ,भेद कोई इसी नीति नही है जिसका प्रयोग इसके लिए न किया जा रहा हो छल से ,बल से ,तकनीकी से ,धन से हर तरीके से मनुष्य बदला लेने मैं लगा है ,फ़िर चाहे वह स्वयं ही उसमें भस्म क्यों न हो जाए
सिर्फ़ शक्ति ही बदले की भावना को प्रबल नही करती बल्कि कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी बदले लेने के विभिन्न तरीके दुंद लेते हैं अभी हाल मैं घटित घटना ने तो हिला कर रख दिया हिजडों के एक समूह ने बच्चे के जन्म पर बच्चे के पिता से हैसियत से ज्यादा मांग की इस पर दोनों मैं कहा -सूनी हो गयी हिजडों ने उस अपमान का बदला उस मासूम बच्चे के पिता को नामर्द बना कर लिया और उसे भी नाचने -गाने के लिए मजबूर कर दिया मृत्यु दंड भी इसे अपराधियों के लिए कम है
बदला लेना और बदला चुकाना ,दोनों विपरीत शब्द हैं जहां एक का भाव ईर्ष्या ,द्वेष ,जलन ,घृणा से पूर्ण होता है ,वही दूसरा कृतज्ञता व् एहसान के भाव को दर्शाता है बदला लेना व्यक्ति के अपराध भावःऔर विचारों की संकीर्णता को दिखलाता है ,वही बदला चुकाना व्यक्ति के सहृदय ,विशाल दृष्टि कोण और सज्जनता का प्रतीक है बदला लेने से शत्रुता बदती है तो बदला चुकाने से प्यार कहीं -कहीं बदला चुकाने को बदला लेने के अर्थ मैं भी प्रयोग किया जाता है वहां बदला लेने की भावना उस सीमा से गुजर जाती है जहां इंसानियत बाकी होती है तभी बदला लेने को बदला चुकाना मान लिया जाता है
कैसे बचा जाए इस विनाशकारी प्रश्न से ?उत्तर एक और ............सिर्फ़ एक है -क्षमा .........
क्षमा वह भावः है जो बदले की उफनती भावना को शीतलता प्रदान करता है सहृदयता और मानवता की भावना फैलाता है मन के अन्दर व्याप्त जहर की तासीर को कम करता है हिंसा का प्रत्युत्तर अहिंसा ही है ,यदि हिंसा ही रहा तो यह आग बढ़ती ही जाएगी यदि कहीं सुकून मिल सकता है तो सिर्फ़ क्षमा से ,सहृदयता से प्यार से ,अपनेपन से
क्षमा करने से व्यक्ति का क्रोध कम होता है ,मन को शान्ति मिलती है ,मानवता की भावना का प्रसार होता है बदला वह है जो बदल दे चाहे वह भावना हो या कार्य
क्षमा करो ,सृजन करो ,कल्याण करो ,भला करो तभी यह बदले की भावना मिट सकेगी
समाप्त
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